समय के साथ युवाओं की सोच में जिस प्रकार का बदलाव आना चाहिए, उसका अभाव साफ परिलक्षित हो रहा है. युवा अपनी पढ़ाई और अपने कॅरियर को लेकर जिस दुविधा में आज से तीस साल पहले थे, आज भी उसी दुविधा में फंसे हैं. वक्त के साथ बदल नहीं रहे हैं. हिन्दी प्रदेशों के घरों में होने वाली बातचीत की कुछ झलकियां यहां विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं. राजू और उसके फूफा के साथ पिछले 13 वर्षों में जो बातचीत हुई है, उसका सार:
राजू 10वीं कर चुका है और उसके फूफा उससे पूछते हैं
राजू साइंस लोगे की आर्ट्स
जवाब राजू के पिता देते हैं, आर्ट्स लेकर क्या करेगा. साइंस में मैथ्स लेगा तभी तो इंजीनियर बनेगा.
(राजू क्या बनना चाहता है इसकी कोई अहमियत नहीं है)
राजू बारहवीं के साथ-साथ इंजीनियरिंग एंट्रेंस की भी तैयारी शुरू करता है. वह बाहरवीं तो पास कर जाता है, मगर एट्रेंस क्लियर नहीं कर पाता है. एट्रेंस की तैयारी करने के साथ-साथ वह बीएससी में भी एडमिशन ले लेता है. तमाम प्रयासों के बावजूद राजू बीएससी तो कर लेता है मगर एट्रेंस क्लियर नहीं कर पाता है.
पाँच साल बाद फूफा जी का फिर से आगमन होता है. शाम को राजू से मुलाकात होती है. फिर पूछते हैं कि राजू अब क्या?
इस बार राजू के पिता जी शांत रहते हैं. राजू बताता है, मेरा ग्रेजुएशन हो गया है. ऑनर्स में एडमिशन ले रहा हूं और साथ में कंपीटिशन की तैयारी भी करना शुरू कर रहा हूँ.
फूफा जी पूछते हैं, किस तरह के कंपीटिशन की तैयारी?
राजू का जवाब होता है, यूपीएससी.
फूफा उसे शुभकामनाएं देते हैं. ऑनर्स की पढ़ाई के साथ-साथ राजू यूपीएससी की तैयारी करता है. ऑनर्स की पढ़ाई पूरी होने पर वह एमएससी में एडमिशन ले लेता है. साथ में सिविल सर्विसेज की परीक्षा भी देता है. मगर राजू की तैयारी अच्छी नहीं थी इसलिए वह पहले दौर की परीक्षा में भी पास नहीं कर पाता है. यूपीएससी के साथ-साथ वह अन्य प्रतियोगी परीक्षाओं (सरकारी नौकरियाँ) की भी तैयारी कर रहा है.
समय बीत जाता है. फूफा जी फिर मिलते हैं और पूछते हैं, राजू क्या हो रहा है?
राजू उन्हें बताता है, कंपीटिशन की तैयारी कर रहे हैं. कहीं न कहीं निश्चित ही हो जाएगा. यदि नहीं हुआ तो एमएससी करने के बाद किसी कॉलेज में लेक्चरर तो बन ही जाएंगे.
राजू एमएससी भी कर चुका है. किसी कंपीटिशन में भी अब तक उसका चयन नहीं हुआ है. राज्य सरकार की नौकरियों के लिए कंपीटिशन की उम्र अभी बची है. उसकी तैयारी शुरू कर देता है. आईएएस नहीं तो पीसीएस ही सही. साथ में लॉ कॉलेज में भी एडमिशन ले लेता है.
चार साल बाद राजू 35 से अधिक का हो गया. उसके पास डिग्रियों का भंडार बीएससी, बीएससी ऑनर्स, एसएससी, लॉ इतनी डिग्रियाँ हैं, मगर उसके पास रोजगार नहीं है. अब वह पाँच हजार रूपये में भी किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने के लिए तैयार है, मगर वहां भी कोई नौकरी देने वाला नहीं है.
राजू जैसों की जिन्दगी के लिए जिम्मेदार कौन है?
पहले उसके पिता जिन्होंने यह तय कर दिया कि वह इंजीनियर बनेगा.
दूसरी गलती राजू की. उसने करियर के नए विकल्पों के बारे में कभी सोचा ही नहीं. डॉक्टर, इंजीनियर, वकील बनने के अलावा कॅरियर के सैकड़ों विकल्प हैं, जिसके विषय में न तो छात्र और न ही उनके अभिभावक गंभीरता से सोचते हैं.
तीसरी गलती समाज की, जो सरकारी नौकरी से आगे किसी दूसरी नौकरी के विकल्प के विषय में न सोचता है और न ही सोचना चाहता है. उनकी नज़र में सिर्फ सरकारी नौकरी ही नौकरी होती है. इनके नज़रिये से देखें तो देश के उद्योगपति और व्यावसायियों की कहीं कोई अहमियत नहीं है.
अब भी यदि सोच नहीं बदली तो….
20-25 साल की ज़िंदगी जिनकी बची है, वे उनके भविष्य का फैसला करते रहेंगे जिन्हें अभी 50-60 साल की जिंदगी का सफ़र तय करना है. सत्ता की भूख से व्याकुल राजनीति और राजनैतिक नेता रोजगार और नौकरी के अंतर को छिपा कर युवा वर्ग को उसकी बेरोजगारी का नशा पिलाते रहेंगे. एक जन-मानसिकता बन जाती है, नौकरी नहीं है तो बन्दा किसी काम का नहीं है. यह न खुद बन्दे को पता है, न उसके माता-पिता को पता है कि बन्दे के भीतर कैसे-कैसे चमत्कार करने की क्षमता थी जो नौकरी की चाह में तेल ख़त्म हो चुके दीये की बाती की तरह धीरे-धीरे मद्धिम और मलीन होती जा रही है. राजनीति के लिए तो यह शतरंज के मोहरे के समान होता है. दुर्भाग्य से भारत में अभी राजनीति आरम्भ नहीं हुयी है. यह आर्थिक विकास के साथ-साथ राजनैतिक स्तर पर भी विकासशील राष्ट्र है. भारत में राजनीति का अर्थ है इसे गिराओ, इसकी टांग खींचो, इसे बाधित करो, या फिर सत्ता हाथ में हो तो कुछ लोगों के हित साधने में पूरी प्रणाली झोंक दो. अगर हमारे देश में राजनीति हुयी होती, तो आज जिन बातों पर दमघोंटू शोर है, वे सारी बातें संविधान लागू होने के 10-15 वर्षों के भीतर ठीक हो गयी होतीं. नौकरी का अभाव और रोजगार से दुराव भी इसी का परिणाम है. राजनीति होती तो जिन्हें नौकरी नहीं मिली उन्हें जीवन जीने के अन्य साधनों की ओर प्रेरित किया जाता. लेकिन अगर ऐसा हो गया तो फिर कहाँ मिलेंगे जुलूस में नारे लगाने वाले लोग. सवाल चाहे सरकार के विरोध का हो या राष्ट्रभक्ति के प्रदर्शन में चीन के सामानों के बहिष्कार के आन्दोलन का हो – कहाँ सडकों पर जुलूस और नारों के बीच दिखाई देते हैं किसी सांसद या मंत्री के नवजवान बेटे या बेटियाँ. जो दिखाई देते हैं वे स्वयं राजनीति की विरासत के रथ पर सवार होते हैं, वरना क्या ज़रुरत है यह सब करने की.
इसलिए देश को ज़रुरत है बेरोजगारों की, ताकि घिसी-पिटी राजनीति, सड़ांध से भरी राजनीति, जातियों-धर्मों-फिरकों पर आधारित राजनीति चलती रहे. बदलाव के नारों के बीच यथास्थिति बनाए रखने की दोगली साजिशें चलती रहें. इसलिए देश के नवजवानों को परिवार से लेकर राजनीति तक, सुदूर गाँवों के खेतों से लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान तक यह बताया जाता है, समझाया जाता है – सरकार तुम्हे नौकरी नहीं दे रही. कोई यह नहीं बताता कि सरकार नौकरी क्यों नहीं दे रही. कोई यह नहीं बताता कि सरकारी नौकरियों की संख्या क्यों घटती जा रही है. कोई यह नहीं बताता कि बेरोजगारी का नारा लगवाने वाला नेता अपने घर में किस प्रकार कम-से-कम आदमी में अधिक-से-अधिक काम करवा लेने का प्रयास करता है. राजनीति सही होती तो जिन हाथों को रोजगार के लिए औजार उठा कर हरकत करनी चाहिए थी, वे हाथ मुट्ठी बांधे सडकों पर किसी नेता का जयकारा लगाते हुए नौकरी का रोना नहीं रो रहे होते. सो सवाल बड़े गंभीर हैं, हालात बड़े संगीन हैं. राजनीति के अट्टहासों के बीच देश का युवा उदास है, निराश है, ग़मगीन है. यह सवाल जुदा है सीधे-सीधे राजनीति से और पारिवार एवं समाज की मानसिकता से. नौकरी की मानसिकता और रोजगार संबंधी दृष्टिकोण में बदलाव होना, सकारात्मक बदलाव होना अत्यंत आवश्यक है. यह नहीं हुआ तो दुनिया में सबसे अधिक युवा आबादी वाला यह देश हताशा के शिकार बने हिंसक निठल्ले युवाओं का देश बन कर रह जाएगा. इसके परिणाम कैसे होंगे, यह सोच कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
यह परिस्थिति तत्काल मध्यवर्तन की माँग करती है. मध्यवर्तन नौकरी और रोजगार की परिभाषा को स्पष्ट करने के लिए, मध्यवर्तन जीवन सुन्दर बनाने के साधनों के विषय में युवाओं को व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रदान करने के लिए, मध्यवर्तन सरकारी स्तर पर अर्थोपार्जन को दिशा और द्रुतता प्रदान करने हेतु कारगर नीतियाँ बनवाने के लिए और मध्यवर्तन कुटीर उद्योगों की सुसुप्त परिकल्पना को ज़िंदा आकार देने का. यह काम जितनी जल्द शुरू हो जाए उतना ही अच्छा होगा, क्योंकि यह जागने का समय है. अगर हम अब भी नहीं जागेंगे तो देर हो जायेगी !
Share this content: