गंगा सागर तीर्थ में भगवद्गीता कथित तीन विभूतियां एक साथ विद्यमान हैं – गंगा, सागर और कपिल मुनि – मोरारीबापू
गंगासागर पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना में स्थित हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ-स्थल है। यह स्थान एक द्वीप पर स्थित है, जिसे चारों ओर से समुद्र घिरे हुए हैं। कहते हैं, सारे तीरथ बार बार, गंगासागर एक बार। इसको गंगासागर इसलिए कहा जाता है क्योंकि यहीं पर गंगा सागर में जाकर मिलती हैं। साथ ही, यहां कपिल मुनि – जिन्होंने विश्व को सांख्य शास्त्र प्रदान किया है – उनका आश्रम भी है,जो दर्शनीय है। कपिल मुनि, सगर राजा के 60,000 पुत्र और भगीरथ राजा के द्वारा गंगा अवतरण की पौराणिक कथा इस पवित्र स्थली से जुड़ी हुई है। ऐसी परम पावन संगम स्थली पर तीन दशक के बाद, एक बार फिर, नौ दिन के लिए मोरारीबापू द्वारा रामकथा का संवादी गायन आरंभ हुआ है। ‘मानस गंगा सागर’ शीर्षक के साथ शुरू हुई इस राम कथा के निमित्त मात्र यजमान अरुणभाई हैं, जिनको इससे पहले भी पांच कथा के यजमान बनने का सौभाग्य मिला है। उनको साधुवाद देते हुए बापू ने कथा के प्रारंभ में कहा कि एक युग में भगीरथ अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा को यहां ले आया था, जो गंगा कैलास से चली थीं और गंगासागर में समा गई। राम कथा भी कैलासी कथा है। कैलास से ही निकली हैं क्योंकि शिव जी ने स्वयं गाई है और उन्होंने कथा को गंगा कहा है। रामकथा रूपी गंगा को गंगा सागर तक लाने के लिए निमित्त मात्र ‘भगीरथ’ यह परिवार बना है।
गंगा और सागर के संगम की तात्विक चर्चा करते हुए बापू ने कहा कि गंगा और सागर का मिलना शरणागति का उत्कृष्ट दृष्टांत है। शरणागति में संघर्ष नहीं होता और शरणागति में ज्यादा संपर्क भी नहीं होता। बापू ने संपर्क के चार दोष बताएं। ज्यादा संपर्क के कारण निंदा का दोष प्रकट होता है, क्रोध उत्पन्न होने लगता है, दंभ आने लगता है और स्पर्धा शुरू हो जाती है। अध्यात्म जगत में स्पर्धा दोष है, श्रद्धा श्रेष्ठ गुण है। इस चर्चा के अंतर्गत बापू ने रविंद्र नाथ टैगोर का वाक्य क्वोट किया कि मैं ऐसा पेड़ हूं जिसके सभी पत्ते झड़ चुके हैं, केवल फल ही फल बचे हैं। और जब फल ही फल रहें तब पेड़ को पत्थर खाने की तैयारी रखनी चाहिए।
गंगासागर तीर्थ को बापू ने मानसरोवर की यात्रा के समान कठिन और दुर्गम बताया। गंगासागर, मानसरोवर और रामचरितमानस तीनों यात्रा को बापू ने दुर्गम बताया।रामचरितमानस के एक दोहे के माध्यम से भीतर की यात्रा को दुर्गम कहा।
जे श्रद्धा संबल रहित नहि संतन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ।।
जिनके पास गुणातीत श्रद्धा का संबल नहीं है, साधु संग नहीं है और जिनको अपने इष्ट में प्रेम नहीं हैं, उनके लिए तीनों यात्रा दुर्गम हैं। बापू ने कहा कि भगवद् गीता की तीन विभूतियां यहां एक साथ विद्यमान हैं। श्रीकृष्ण ने गीता में… *सरसामस्मि सागरः* , *सिद्धानां कपिलो मुनि:* , *स्रोतसामस्मि जाह्नवी*… कहकर तीनों को विभूति बताया। रामचरितमानस के चार वक्ताओं की वाणी को बापु ने चार प्रकार की वाणी में विभक्त किया। शिवजी की ‘परा वाणी’ , काकभुशुण्डिजी की वाणी को ‘पश्यन्ती वाणी’, याज्ञवल्क्य की वाणी को ‘मध्यमा वाणी’ और तुलसीदास जी की वाणी को ‘वैखरी वाणी’ बताया।
कथा का मंगलाचरण करते हुए बापू ने पंचदेवों की उपासना का महत्त्व समझाते हुए कहा कि जगतगुरु शंकराचार्य ने सनातन वैश्विक धर्मावलंबियों के लिए पंचदेवों की उपासना की अनिवार्यता बतायीं। गुरु वंदना प्रकरण में बापू ने गुरु की महिमा में स्वामी शरणानंदजी की बात को रखते हुए कहा कि व्यक्ति को कभी गुरु न समझें और गुरु को कभी व्यक्ति न समझें। गुरु, व्यक्ति के रूप मेें साक्षात् परब्रह्म हैं। इस चर्चा के दौर में तीन प्रकार के विषादों का बापू ने विवरण किया – विषय-विषाद, विषम-विषाद और विषक-विषाद। वंदना प्रकरण में बापू ने कहा कि जब तक दूसरा अवंदनीय और निंदनीय लगे तब तक समझना कि हमारी दृष्टि पवित्र नहीं हुई है, दृष्टि दूषित है। सब के प्रति वंदना का भाव जगे तब समझना कि दृष्टि पवित्र हुए है। मंगलाचरण के कई पहलुओं को छूते हुए बापू ने आज की कथा को विराम दिया।
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