Site icon Memoirs Publishing

पहाड़ की बेटी भावना का खत, आम जनता के नाम

पहाड़ की बेटी भावना का खत, आम जनता के नाम

सम्मानित जनता को,
मेरा नमस्कार।
मैं भावना पांडे उत्तराखंड की एक बेटी हूं। मेरा जन्म हल्द्वानी में हुआ। जैसे कि हम पर्वतीय लोगों की नीयति है कि होश संभालते ही हम परिवार की खातिर मैदानों की ओर चल पड़ते हैं, मैंने भी उसी पलायन की पीड़ा को सहा और 31 वर्षों तक भोगा है।

इस दौरान दिल्ली में जीवन संधर्ष किया, अथक मेहनत की और नये क्षतिज को छूने की कोशिश की। समाज में अपने लिए जगह और पहचान बनाई। अलग राज्य के लिए आंदोलन किया। सोचा था कि लखनऊ में बैठे हुक्मरानों तक पहाड़ की जनता की आवाज पहुंचानी मुश्किल है। यदि अलग राज्य होगा तो हुक्मरान भी अपने होंगे और राज्य भी। सीमांत गांव के अंतिम छोर तक विकास की किरणें पहुंचेंगी और जैसा मैंने पलायन का दंश सहा, अपनी माटी से दूर हुई वैसा अब नहीं होगा। पलायन का यह चक्र रुकेगा और नये राज्य में उम्मीदों का सूरज खिल उठेगा। यह अकेले मेरी सोच नहीं थी, मेरे जैसे हजारों लोगों ने इसी उम्मीद पर राज्य आंदोलन किया। सड़कों पर उतरे, लाठी-डंडे ही नहीं गोलियां खाई। शहीदों के बलिदान और आंदोलनकारियों के त्याग और संघर्ष के बाद हमें अपना उत्तराखंड राज्य मिला, लेकिन क्या वो सपने साकार हुए? क्या शहीदों के सपनों को कोई आधार मिला? विकास की किरणें सीमांत गांवों तक पहुंची? पलायन रुका? पहाड़ का आम आदमी संपन्न हुआ? आम आदमी की आवाज देहरादून में बैठे हुक्मरान सुन रहे हैं? इन और अनेक अन्य सवालों का जवाब है नहीं।
पूर्व कैबिनेट मंत्री प्रकाश पंत ने करायी घर वापसी
मैं खुश थी कि दिल्ली और यूपी में रहकर अच्छे से जीवन-यापन कर रही हूं। वर्षों का संघर्ष अब फल दे रहा था कि पूर्व कैबिनेट मंत्री स्व. प्रकाश पंत ने मुझे उत्तराखंड आने और यहां काम करने का न्योता दिया। उनका कहना था कि अब उत्तराखंड आओ और यहां के कुछ लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था करो। कुछ निवेशकों को लेकर आओ। पंत मेरे भाई समान थे और उनके असामायिक निधन से मुझे ही नहीं समस्त उत्तराखंड को अपूरणीय क्षति हुई है। खैर, मैं उनके आग्रह पर वर्ष 2018 में हरिद्वार आ गयी। यहां मैं कुछ निवेशकों के साथ लेकर आयी और खनन कार्य के लिए दो पट्टे जो कि लगभग चार करोड़ रुपये के थे, वो ले लिये। खनन कार्य महज सात-आठ दिन ही चला क्योंकि प्रदेश सरकार के पास केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की अनुमति नहीं थी। इसके बाद पिछले दो वर्ष से शासन, निदेशालय और अफसरों के चक्कर लगाने का जो सिलसिला शुरू हुआ वो आज भी जारी है। ऐसे में मैंने सरकार, शासन-प्रशासन और नेताओं की चैकड़ी को बहुत नजदीक से देखा और समझा। अपने इसी कटु अनुभव और सवालों को लेकर मैं आज आपके पास आई हूं कि आखिर हम जनता क्यों ये सब झेल रहे हैं? हम सब व्यवस्था पर सवाल क्यों नहीं कर पाते हैं? क्यों हर बार उन्हीं को चुनते हैं जो हमारी बात नहीं सुनते ? क्यों हम उन पर विश्वास करते हैें जो हमें बार-बार, हर बार छलते हैं।

Share this content:

Exit mobile version