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वन दारोगा के 316 पदों के लिए 80 हजार अभ्यर्थी

वन दारोगा के 316 पदों के लिए 80 हजार अभ्यर्थी
यह बेरोजगारी से कहीं अधिक कुव्यवस्था और भटकाव की स्थिति है
यह कैसी शिक्षा व्यवस्था, पीसीएस के सपनों की दौड़, वन रक्षक तक न बनने की हताशा

यह सोच बहुत खतरनाक है कि इस दौर में जिसे सरकारी नौकरी मिल रही है वो धरती का भगवान है। यानी काम करना नहीं है और वेतन के अलावा ऊपरी कमाई भी है। जीवन मजे से कट जाता है। अब सरकारी नौकरी चाहे चपरासी की हो, वन रक्षक या वन दारोगा की। एक पद के पीछे सैकड़ों अभ्यर्थी होते हैं। उदाहरण वन दारोगा भर्ती परीक्षा से लिया जा सकता है। वन दारोगा के 316 पदों के लिए 80 हजार युवाओं ने आवेदन किया है। प्रदेश में बेरोजगारी की यह भयावह तस्वीर है लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ही खराब है। इस व्यवस्था में जब तक बदलाव नहीं होगा तो यह मंजर आगे और भयावह दिखेगा।

अलग राज्य बने 20 साल हो गये लेकिन हमने चोरी-चकारी से लेकर भ्रष्टाचार और दलाली भी यूपी से विरासत में ले ली है। हमारे अधिकांश विभागों के कानून और कार्यप्रणाली यूपी की हू-ब-हू हैं। शिक्षा व्यवस्था भी। अलग राज्य के लिए अलग शिक्षा नीति चाहिए थी। पहाड़ों के अनुकूल। यानी बच्चों को स्कूल में उत्तराखंड राज्य आंदोलन की बात पढ़ाई जाती। जैविक खेती विषय होता, अध्यात्म को रोजगार से जोड़ना की बात होती। बागवानी और जड़ी-बूटी विषय होते। टूरिज्म विषय होता, आपदा प्रबंधन विषय होता। लोक कला विषय होता। प्रकृति और हिमालय विषय होता। यानी प्रदेश की भौगोलिक स्थितियों के अनुसार रोजगार परक शिक्षा व्यवस्था होती। तो आज यह नौबत नहीं आती।

हमने ऐसी युवा पौध तैयार की है जो वाइट काॅलर जाॅब के पीछे भागती है और पहाड़ों में उनसे अधिक नेपाली और बिहारी मजदूर कमा लेते हैं। मसलन, सड़क से गांव तक रसोई गैस सिलेंडर लाना हो तो डुटयाल चाहिए। बेरोजगार युवा उसे लाने में शर्म महसूस करता है। यह कैसी शिक्षा व्यवस्था है। हमारे बच्चे अंधाधुंध पढ़ते हैं। यानी 12वीं, बीए, बीएससी, एमए एमएस सी। बीएड, बीटीसी पढ़ते ही जाते हैं। उन्हें ग्रेजुएशन करने तक पता ही नहीं होता कि आखिर जीवन में करना क्या है? उसके बाद भी नहीं पता। इसलिए हर सरकारी पोस्ट के पीछे भागते हैं। तैयारी यूपीएससी या पीसीएस से करते हैं और नौकरी की दौड़ वन रक्षक तक पहुंच जाती है। यदि बच्चों को नौंवी कक्षा से ही करियर काउंसिल मिल जाएं तो भटकाव आएगा ही नहीं। कम से कम इतना भटकाव नहीं आएगा। यही कारण है कि उत्तराखंड में बेरोजगारी दर 22 प्रतिशत से भी अधिक है।युवाओं में भटकाव की स्थिति के लिए सरकार और शिक्षा नीति जिम्मेदार है। सरकारी नौकरी के अलावा भी राहें हैं, ये बात हमारी सरकार उन्हें समझा नहीं रही है। ऐसे में पहाड़ और पहाड़ी नशे और तनाव की गिरफ्त में हैं। यदि सर्वे हो तो इसका भयानक खुलासा हो जाएगा।

उधर, उत्तराखंड राज्य अधीनस्थ सेवा चयन आयोग एक सफेद हाथी है। यह आयोग सबसे अधिक निकम्मा है। इसे भंग कर दिया जाना चाहिए और वैकल्पिक व्यवस्था के माध्यम से भर्ती करनी चाहिए। आयोग कोई भी परीक्षा समय पर आयोजित नहीं कर पाता है। वन दारोगा की भर्ती के लिए 2019 से प्रक्रिया चल रही है लेकिन परीक्षा आज तक नहीं हुई। कोरोना मात्र बहाना है। आयोग या सरकार भर्ती ही नहीं करना चाहती है। जब तक सरकार रोजगार परक शिक्षा नीति नहीं बनाएगी। करियर काउंसिलिंग नहीं होगी तो युवाओं में भटकाव रहेगा और बेरोजगारी दिनों दिन बढ़ती जाएगी। बेरोजगारी से अपराध भी पनपेंगी और आत्महत्याएं भी बढ़ेंगी।

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