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पर्यावरण की रक्षा मे जुटे लोगों का प्रख्यात प्रेरणा स्थल ‘रैणी गांव’ का अस्तित्व खतरे मे

पर्यावरण की रक्षा मे जुटे लोगों का प्रख्यात प्रेरणा स्थल ‘रैणी गांव’ का अस्तित्व खतरे मे
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सी एम पपनैं

पर्यावरण की रक्षा मे जुटे लोगों के लिए, उत्तराखंड, चमोली स्थित, सीमांत गांव, ‘रैणी’ एक प्रेरणा स्थल के रूप मे, वैश्विक फलक पर प्रख्यात रहा है। उक्त गांव मे स्थापित ‘चिपको आंदोलन’ की प्रणेता गौरादेवी की मूर्ति व संग्रहालय तथा पीढ़ियों से उक्त गांव मे निवासरत करीब 60 परिवारों के लगभग 350 ग्रामीण, अब जल्द ही, स्थापित सरकारों द्वारा, विकास के नाम पर की गई विनाशकारी कारगुजारियों के परिणाम स्वरूप, अपना अस्तित्व खोकर, इतिहास के पन्नो में दर्ज होने जा रहे हैं।

जल, जंगल, जमीन की हिफाजत और उसके संरक्षण के क्षेत्र मे, जिस गौरादेवी ने अपने गांव की अन्य महिलाओ को इकठ्ठा कर, पूरे देश को पर्यावरण सुरक्षा का संदेश दे, आम समाज की जागरूकता पर गहरा व व्यापक प्रभाव डाला था। दुनिया को ‘चिपको आंदोलन’ नाम से, मंत्र प्रदान किया था। पर्यावरण सुरक्षा की महानायिका गौरादेवी की ऐतिहासिक विरासत को जिस गांव के लोगो द्वारा, बखूबी सहेज कर रखा गया था। विगत वर्षो व महीनों मे पर्यावरण के साथ हुए खिलवाड की कीमत भी, आज उसी गांव के वाशिंदों को चुकानी पड़ रही है। कुदरत, कहर बन कर, उस ऐतिहासिक ‘रैणी गांव’ पर टूट, उसका अस्तिव मिटाने पर आमदा है।

विगत माह, 7 फरवरी, ऋषिगंगा व धौलीगंगा मे ग्लेशियर टूटने से आई बाढ़ ने तपोवन व रैणी गांव मे, भारी तबाही मचाई थी। उक्त गांव के निवासियो के साथ-साथ, एनटीपीसी पावर प्रोजेक्ट को, भारी नुकसान व सैकडो लोगों ने जान गवाई थी। अचानक आई भयावह बाढ़ को देख, रैणी गांव के लोगों की रूह कांप गई थी। चीन सीमा से जुडे गांवो के साथ ही, सेना और आईटीबीपी की चौकियों का संपर्क कट गया था।

विगत माह मई व जून मे उत्तराखंड के समस्त पर्वतीय अंचल मे निरंतर हुई अतिव्रष्टि के भयावह मंजर व निरंतर हो रहे भू-स्खलन ने अंचल के लोगों को भारी चिंता मे डाला है। रैणी गांव के लोग भी इस भयावहता से अछूते नहीं रहे हैं। इस गांव के लोग, दरक कर ध्वस्त होते अपने मकानो को देख, हर पल चिंता मे डूब, दिन गुजारने, मौसम खराब होने पर, ऊपर पहाड़ पर चढ़ कर, उडयारों (गुफाओं) में शरण लेने व ऊपरी पहाड के दरकने पर जिस खौफनाक मंजर से गुजर रहे हैं, अकल्पनीय है।

रैणी गांव की तलहटी को, ऋषिगंगा की बाढ़ कुरेद-कुरेद कर ध्वस्त करने लगी है। ग्रामीणों के घर-आंगन और खेतों मे दरारें पड़ने लगी हैं। धीरे-धीरे रैणी गांव धसकते हुए दोनों तरफ से ऋषिगंगा की तरफ सरकने लगा है। गांव के पास से गुजर रही, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण नीति पास को जोडने वाला, जोशीमठ-मलारी हाईवे का लगभग पैंतालीस मीटर हिस्सा जमींदोज हो गया है। गांवो को जोड़ने वाले रास्ते, ध्वस्त होने से खाना, पानी, बिजली, दवाई का अभाव नजर आने लगा है। न जाने किस पल, पूरा गांव उफनती ऋषिगंगा में समा जाए, गांव वाले जब इस चिंता मे डूबने लगे, तो समझा जा सकता है, प्रकृति के साथ हुई वीभत्स छेड़छाड़ का, हिमालयी सीमांत क्षेत्र के गांव रैणी के साथ-साथ, अन्य गांवो पर भी कितना दुष्प्रभाव प्रभाव पड़ा होगा।

पीढियो से निवासरत, रैणी गांव के 60 परिवारों के करीब 350 लोगो मे से, करीब 250 लोग, जिनके बाल-बच्चे बाहर मैदानी कस्बो व शहरों में प्रवासरत हैं, नौकरी करते हैं, वे लोग गांव मे निरंतर घट रही प्राकृतिक आपदाओ व हालातो से विचलित हो, अपने आश्रितो के पास चले गए हैं। बांकी बचे करीब सौ लोग, जिनका गांव के अलावा कोई ठौर-ठिकाना नही है, चिंतित हो, प्रशासन के नुमाइंदो से आग्रह पूर्वक, पूछते रहे हैं, अपने ढोर-डंगर लेकर कहां जाए?

स्थानीय जिला प्रशासन, गांव वालों की मुसीबत को, बिना जाने-समझे, तपोवन शिफ्ट होने का फरमान जारी करता है। गांव वालों को जिस प्राइमरी स्कूल में शरण लेने को कहा जाता है, वह स्कूल ही सुरक्षित नहीं होता है, वहां भी दरारें पडी हुई दिखती हैं। प्रशासन के हर्ता-कर्ता दूर जिला कार्यालयों में बैठ, गांव वालों पर ठीकरा फोड़ते व खींजते नजर आते हैं। सवाल उठता है, आखिर गांव वाले, अपना घरेलू तामझाम व अपने मवेशियो को साथ लेकर, जाएं तो कहा जाएं?

गांव सहित, इर्द-गिर्द इलाके का क्षत-विक्क्षत हो रहा भयावह नजारा व क्रुद्ध हो चली प्रकृति का, कभी भी लील लेने वाले इरादे को भाप, रैणी गांव के लोगों द्वारा, प्रशासन को विस्थापन की अर्जी सौपी गई है। जिसका सम्बंधित विभाग द्वारा सर्वे होने के बाद ही, विस्थापन की प्रक्रिया आरंभ होने की सम्भावना जताई जा सकती है।

गांव बचे या न बचे। गांव वालों का विस्थापन हो या न हो। बिलखते गांव वालों की भावनाओं को तुष्ट करने के लिए, प्रशासन द्वारा, गौरादेवी की गांव मे स्थापित मूर्ति, पिलरो को नष्ट कर, जोशीमठ में कुछ ठुल-मुल आश्वासनो के साथ, सुरक्षित रख दी गई है।

वैश्विक फलक पर प्रख्यात रहे, रैणी गांव के ग्रामीणों की भावनाओ व कष्टों का अवलोकन कर ज्ञात होता है, सन् 2006 से ही, पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से, निर्माणाधीन ऋषिगंगा पावर प्रोजेक्ट का, ग्रामीणों द्वारा विरोध किया गया था। अदालत तक मामला गया था, पर हुआ उल्टा ही था। धरना प्रदर्शन करने वाले, प्रकृति संरक्षण कृताओ के खिलाफ, प्रशासन द्वारा, मुकदमे ठोक दिए गए थे। यहां तक कि निर्मित प्रोजेक्ट मे, स्थानीय ग्रामीणों को रोजगार तक नहीं दिया गया था।

स्थानीय ग्रामीणों द्वारा, ऋषिगंगा परियोजना के निर्माण के वक्त हुए धमाकों से घबरा कर, जो आशंकाएं व्यक्त की गई थी, जिन चिंताओं को लेकर ग्रामीणों द्वारा, पर्यावरणविदों की मदद से हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट तक लड़ाई लड़ी गई थी, वे सभी तथ्य व प्रमाण, वर्तमान मे धरातल पर
सही साबित होकर, घटी आपदाओ की पुष्टि करते नजर आते हैं। ग्रामीणों का मानना है, काश! पर्यावरण मंत्रालय प्रकृति संरक्षण के उलट रिपोर्ट बनाने की बजाय, ग्रामीणों व पर्यावरण विदो के जमीनी ज्ञान व अनुभव को सुन व जान लेता, तो, हजारो करोड़ रुपयों से तपोवन मे निर्मित ऋषिगंगा प्रोजेक्ट बाढ़ मे ध्वस्त व अति संवेदनशील हिमालयी प्रकृति का क्षरण तथा सैकडो लोगों की जान नहीं जाती।

उत्तराखंड के पिछडे पर्वतीय अंचल के परिपेक्ष मे माना जा सकता है, विकास जरूरी है। लेकिन देश के अन्य मैदानी भागो को छोड़ कर, अति संवेदनशील हिमालयी पर्वतीय भू-भाग मे जहा, निरंतर अतिव्रष्टि व ग्लेशियरो के खिसकने से, भारी जन-धन की हानि व बर्बादी हो रही है। इस सबसे सबक लेकर, राज्य व देश हित में, गहराई से चिंतन-मनन का वह समय आ गया है, जब देश के नीति-निर्माताओ को यह समझना होगा, हिमालयी ग्रामीण अंचल के विकास की परिभाषा व पैमाना क्या होना चाहिए? और उसकी कीमत क्या होगी?

भू-विज्ञानियों के कथनानुसार, हिमालयी पर्वत श्रंखलाऐ बहुत पक्की नहीं, कच्ची व संवेदनशील हैं। बडे निर्माण कार्यो से पेड़ों व पर्यावरण का नुकसान होगा। तापमान बढेगा, ग्लेशियर पिघलैंगे। अतिव्रष्टि होगी। भू-स्खलन होगा। बाढ़ आयेगी। प्राकृतिक असंतुलन का खतरा बढ जाएगा। इस प्रकार की मानव जनित विपत्तियो व आपदाओ के उपजने से देश के हिमालयी सीमांत गांवो का अस्तित्व, खतरे की जद मे आकर, रैणी गांव की तरह मिटने लगेगा और धीरे-धीरे एक हिमालयी सभ्यता व संस्कृति का अंत हो जायेगा।

आज हमारे नीति निर्माताओं को सजग होकर चाहिए वे पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति जागरूक होकर, आपदाओ के कारको की पहचान कर, उनके निराकरण का मार्ग प्रशस्त करे। छोटी व लघु योजनाओ, परियोजनाओ के द्वारा उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल का विकास कर, राज्य को स्मृद्धि की राह प्रदान करे।

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