लोकसंस्कृति, लोककला, भाषा व साहित्य राजनैतिक दलों के मुद्दों में शामिल नहीं हैं। ऐसा लगता है कि राजनैतिक दलों का इन मुद्दों से कोई सरोकार ही नहीं है। दलों के घोषणा पत्रों में जिस तरह से इस वर्ग की अनदेखी की गई है। उससे इस क्षेत्र में काम कर रहे दिग्गज नाखुश हैं।
जागर गायिका पद्म श्री बसंती बिष्ट का कहना है कि लोकभाषा, कला संस्कृति, साहित्य संरक्षण पर दलों की खामोशी चिंताजनक है। लोकसंस्कृति में शोध, संरक्षण, नई पीढ़ी को प्रोत्साहन की भी बात उतनी ही जरूरी है जितना विकास के अन्य मुद्दे। पहाड़ की संस्कृति की प्रमुख संवाहक महिलाओं के लिए दलों के पास स्पष्ट सोच नहीं है। जो दल उत्तराखंड की कला संस्कृति की अनदेखी कर रहे हैं, मतदाताओं को ऐसे दलों से सावधान रहना चाहिए। दून विवि के लोककला व रंगमंच विभाग से डा.राकेश भट्ट का कहना है कि यह अफ़सोसजनक है कि नेताओं के चुनाव प्रचार में क्षेत्रीय बोलियों जैसे गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी आदि गीतों में उनके गुणगान तो करवाये जा रहे हैं, जबकि किसी भी प्रत्याशी के चुनावी एजेंडे में शिद्दत से यह नहीं बताया गया है कि लोक भाषा, कला, संस्कृति व लोक रंगमंच के संरक्षण के लिए उनके पास क्या योजनाएं हैं। लोक कलाकार क्या सिर्फ उनकी सभाओं में मजमा लगाने के लिए ही हैं या उनकी भी कोई सुध लेने वाला है? राजनैतिक दलों के पास कला व कलाकारों के संरक्षण के लिए एक विचारशील एजेंडे का न होना क्षेत्रीय संस्कृति व कलाओं के लिए बहुत दुर्भाग्यजनक स्थिति है। यह तब और भी दुःखद है, जब कोरोना ने लोक कलाकारों का काम भी छीन लिया।
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