पहाड़ की प्रबल आवाज स्व. डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट का जन्म 4 फरवरी 1947 को अल्मोड़ा में हुआ था। मूल रूप से स्याल्दे ब्लॉक के तिमली गांव निवासी डॉ. शमशेर सिंह के पिता स्व. गोविंद अल्मोड़ा कचहरी में कार्य करते थे। डॉ. बिष्ट का जन्म भी अल्मोड़ा में ही हुआ। इंटरमीडिएट पास करने के बाद उन्होंने तत्कालीन संघटक महाविद्यालय अल्मोड़ा में प्रवेश लिया और छात्र राजनीति में सक्रिय हो गए। 1972 में वह अल्मोड़ा संघटक महाविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष बने और उन्होंने पहली बार छात्रों की समस्याओं के साथ ही राज्य और उत्तराखंड के मुद्दों को लेकर संघर्ष की शुरुआत की। डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट ने चिपको, विश्वविद्यालय, वन बचाओ, नशा नहीं-रोजगार दो, नदी बचाओ और उत्तराखंड राज्य आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई थी। नशा नहीं, रोजगार दो आंदोलन में वह अपने साथियों के साथ 40 दिन तक जेल में रहे। राज्य के कई अन्य आंदोलनों के दौरान भी वह कई बार गिरफ्तार हुए। उन्होंने 1974 में अपने तीन अन्य साथियों के साथ अस्कोट से आराकोट तक 45 दिन की यात्रा की।1977 में उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी के गठन के बाद डॉ. बिष्ट और कुछ अन्य नेताओं के नेतृत्व में वनों को बचाने के लिए जबरदस्त आंदोलन हुआ। उत्तराखंड के अलावा देश में मानवाधिकार, पर्यावरण, नदियों आदि के मुद्दों को लेकर भी वह देश के विभिन्न इलाकों में आयोजित सम्मेलनों और जागरूकता कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे। उन्होंने 1974 में अपने तीन अन्य साथियों के साथ अस्कोट से आराकोट तक 45 दिन की यात्रा की।1977 में उत्तराखंड जन संघर्ष वाहिनी के गठन के बाद डॉ. बिष्ट और कुछ अन्य नेताओं के नेतृत्व में वनों को बचाने के लिए जबरदस्त आंदोलन हुआ। उत्तराखंड के अलावा देश में मानवाधिकार, पर्यावरण, नदियों आदि के मुद्दों को लेकर भी वह देश के विभिन्न इलाकों में आयोजित सम्मेलनों और जागरूकता कार्यक्रमों में हिस्सा लेते रहे। सत्ता की राजनीति का भले ही शमशेर सिंह ने सदा तिरस्कार किया, लेकिन देश में वैकल्पिक राजनीति के लिए वे सदा क्रियाशील रहे. उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के वे संस्थापक अध्यक्ष थे तो इंडियन पीपुल्स फ्रंट के संस्थापकों में भी वे शुमार थे. उत्तराखंड राज्य बनने के बाद राजनीति में हस्तक्षेप करने के लिए बनी उत्तराखंड लोक वाहिनी के संयोजक अध्यक्ष वे ही बनाए गए थे. स्वामी अग्निवेश जैसे लोग उनके साथी रहे थे तो शंकर गुहा नियोगी जैसे व्यवहारिक कामरेड भी उनके उतने ही करीब रहे थे. वे अपनी वैचारिक स्पष्टता से लोगों को जीतते थे और अनेक बार उनका ऐसा ही हस्तक्षेप परिस्थितियों की दिशा बदल देता था.25 मई 1974 को राजकीय इंटर कॉलेज अस्कोट से यह ऐतिहासिक यात्रा प्रारंभ हुई जो 45 दिनों में 750 किलोमीटर से अधिक की यात्रा के दौरान 12 बड़ी-बड़ी नदियां 9000 से 14000 फुट तक के तीन पर्वत शिखर के साथ ही 200 से अधिक गांवों और कस्बों से होकर गुजरी। इस यात्रा ने शमशेर सिंह बिष्ट के जीवन का उद्देश्य बदल दिया। वह गांव कुमाऊं के हों अथवा गढ़वाल के दोनों ही जगह ग्रामीण समाज के हाल बेहद दर्दनाक थे।अस्कोट में काली और गोरी नदियां बहती हैं, तो आराकोट में टोन्स और पब्बर। दोनों के बीच का जीवन अभाव, गरीबी और पीड़ा में पल रहा है। यह दर्शन उन्हीं के बीच जाकर हो सकता है। मोटर सड़कों तक तो सब ठीक दिखता है फिर लोग घर से बाहर बन ठन कर भी निकलते हैं इसलिए अभाव और गरीबी का दर्शन करने के लिए जो पद यात्रा संपन्न हुई उसने उत्तराखंड के गांव में गरीबी अभाव, असुरक्षा, शराब खोरी, क्षेत्रीय राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय घटनाओं से अनभिज्ञता और महिलाओं की बदहाली के साथ ही मजबूर युवाओं के पलायन की दारूण तस्वीर पेश की। उस पीडा़ ने ही शमशेर को उत्तराखंड में ही संघर्षरत रहने का मैदान दे दिया।उसके बाद मात्र 6 माह की जेएनयू की पढ़ाई को शमशेर सिंह बिष्ट ने अलविदा कह दिया और समाज के संघर्ष को अपना विश्वविद्यालय बना दिया। इस यात्रा की यह भी उपलब्धि थी कि इसने कुमाऊं और गढ़वाल के मध्य सामाजिक सहयोग के नए द्वार खोले। यह भी कि प्रताप शिखर और कुंवर प्रसून जहां तपे हुए गांधीवादी सर्वोदय कार्यकर्ता थे वहीं शमशेर सिंह बिष्ट और श्री शेखर पाठक वामपंथ के रुझान के युवा लेकिन दोनों ही धाराओं ने इस यात्रा में एक बेहतर समन्वय स्थापित कर समाज को नई दिशा दी।जेएनयू के छह माह ने हीं शमशेर सिंह बिष्ट को धर्म, जाति और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर एक मानवीय दृष्टि से चीजों को देखने समझने की दृष्टि दी। इस दृष्टि से न केवल शमशेर सिंह बिष्ट के सामाजिक संघर्ष को आसान किया बल्कि उन्हें संघर्ष के राष्ट्रीय फलक में स्थापित होने में भी सहायता प्रदान की उत्तर प्रदेश से उत्तराखण्ड के अलग होने का कारण हिमालय क्षेत्र की उपेक्षा ही रहा. उस जमाने में कहा जाता था कि लखनऊ की बनी हुई टोपी जबरदस्ती उत्तराखण्ड को पहनाने की कोशिश की जा रही है. मगर उत्तर प्रदेश में शासन करने वाले प्रमुख राष्ट्रीय दल, ही पृथक उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद यहाँ भी शासकों के रूप में स्थापित हो गये. फर्क सिर्फ यह पड़ा कि जिस तरह की नीतियाँ पहले लखनऊ से संचालित होती थीं, वही वाली नीतियाँ पिछले 22 वर्षों से देहरादून से संचालित होने लगी हैं.उत्तराखण्ड में चले प्रमुख जन आंदोलनों में जिनकी भूमिका उत्तराखण्ड विरोधी या कहें कि हिमालय विरोध की रही, वे ही सत्ता को चलाने वाले बन गए. आज उत्तराखण्ड ‘उत्तराखण्ड’ न रह कर ‘ठेकेदार खण्ड’ बन गया है. उनका राजनीतिक सफर 1972 में अल्मोड़ा कॉलेज के छात्रसंघ अध्यक्ष के तौर पर शुरू हुआ। उस समय छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के लिए छात्र पूरा सिनेमा हॉल बुक कर छात्रों को फिल्म दिखाते थे। तब शमशेर सिंह बिष्ट 50 रुपये खर्च कर छात्रसंघ अध्यक्ष बने थे। छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के बाद इसके बाद स्व. बिष्ट विश्वविद्यालय आंदोलन से जुड़े और इसके बाद ही कुमाऊं और गढ़वाल विश्वविद्यालय अस्तित्व में आये थे।यहां के 90 प्रतिशत जनप्रतिनिधि ठेकेदारी के धंधे में लिप्त हैं. हिमालय की प्राकृतिक संपदा, चाहे वह जंगल हों, खनिज, पानी या फिर नैसर्गिक सौन्दर्य, की जबरदस्त लूट मची हुई है. यह लूट करने वाले हमेशा कानून से ऊपर रहते हैं. राजनीतिक प्रभाव से जन प्रतिनिधि स्वयं अपनी और अपने समर्थक ठेकेदारों की नौकरशाहों के गिरोह में जबरदस्त पकड़ बनाए हुए हैं. पुलिस-प्रशासन पंगु बना हुआ है. वह लूट को देखते हुए भी अनदेखा करता है. हालात इतने चिन्ताजनक हैं कि अल्मोड़ा शहर के अंदर ही देवदार के पेड़ खुलेआम काट दिए जाते हैं लेकिन काटने वाले प्रभावशाली लोगों की पहुँच प्रशासन, पुलिस व न्यायपालिका तक होने के कारण मामला पूर्णतः दबा दिया जाता है.जन्मजयंती के उपलक्ष्य में उन्हें शत शत नमन. ।
लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।
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