Monday, May 20, 2024

इंटरनेट और सेलफोन ने संचार, मातृभाषाओं को बचाने और बढ़ाने में क्रांति ला दी है।

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स्थानीय भाषाओं को समृद्ध बनाने में तकनीक की बड़ी भूमिका है। यूनिकोड से डिजिटल माध्यमों पर दुनियाभर की भाषाओं का प्रयोग आसान हो गया। इंटरनेट क्लाउड मोबाइल फोन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ने इसे और भी बेहतर किया है।

 

नई दिल्ली, बालेन्दु शर्मा दाधीच। जिन भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 10,000 से कम है, उन्हें संकटग्रस्त माना जाता है। वर्ष 2018 में यूनेस्को की तरफ से जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत की 42 भाषाएं संकटग्रस्त या विलुप्त होने की तरफ बढ़ रही हैं।

भाषा विद्वानों का मानना है कि भारत में संकटग्रस्त भाषाओं की संख्या 150 से अधिक है। ऐसी भाषाओं को बचाने में इंटरनेट, इंटरनेट मीडिया और मोबाइल फोन की महत्वपूर्ण भूमिका साबित हो रही है। आवाज उठाने, जागरूकता फैलाने, संसाधनों को इकट्ठा करने, इनकी सामग्री को लोगों तक पहुंचाने, फंड जुटाने और जरूरी सुविधाएं तैयार करने में तकनीक मदद कर रही है।

इंटरनेट के जरिये ऐसे समुदाय बन रहे हैं जो भाषाओं को सुरक्षित करने के लिए मिल-जुलकर काम कर रहे हैं, जिसमें उन्हें सीखने के लिए लिपि तैयार करना, फांट डिजाइन करना, पाठ्यसामग्री बनाना, टाइपिंग के साधन तैयार करना, भाषाई स्टैंडर्ड विकसित करना, सीखने के प्लेटफार्म बनाना, विशेषज्ञ तैयार करना, साहित्य को क्लाउड पर सहेजना आदि शामिल हैं। इसमें कंपनियों का भी योगदान है। पिछले दिसंबर में गूगल ने भारत की 100 से ज्यादा भाषाओं में टेक्स्ट और ध्वनि की सुविधाएं जोड़ने की घोषणा की थी।

सुविधाओं का प्रसार

अगर आपको अपनी भाषा में कामकाज में दिक्कत महसूस होती है तो कंप्यूटर, मोबाइल फोन और इंटरनेट की मदद लीजिए। फांट चाहिए, मिल जाएंगे। टाइपिंग के टूल चाहिए, मिल जाएंगे। साफ्टवेयर तथा मोबाइल एप्लीकेशन भी मौजूद हैं तो वर्तनी जांचने वाले साधन भी। शोध सामग्री भी खोजी जा सकती है तो पत्र-पत्रिकाएं तथा ईबुक्स भी।

आपकी भाषा से दूसरी भाषा में और उसके उलटे क्रम में अनुवाद करना चुटकियों का काम हो गया है। इंटरनेट ने स्वतंत्र डेवलपर्स तथा कंटेंट क्रिएटर्स को भी प्रोत्साहित किया है जो दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में रहते हुए भी अपनी भाषाओं के लिए कुछ न कुछ कर रहे हैं। पहले ब्लागर समुदाय और अब यूट्यूबरों ने अनगिनत सामग्री हमारी भाषाओं में तैयार की है।

 

लोगों को जोड़ना

देखते ही देखते फेसबुक, वाट्सएप, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर भारतीय भाषाओं में टिप्पणियां बहुत बढ़ गई हैं। इन भाषाओं में बातचीत हो रही है, बहस हो रही है, दिलचस्प चीजें एक-दूसरे के साथ शेयर की जा रही हैं और ट्रालिंग भी हो रही है। कुछ लोग अपनी लिपि में लिखते हैं तो कुछ रोमन का प्रयोग कर लेते हैं लेकिन अपनी भाषा में टिप्पणी करने का सुख मिल रहा है।

समान भाषा भाषियों को एकजुट करने में इंटरनेट मीडिया का बड़ा योगदान है। यह ऐसा मंच है जहां लोग भाषा का दायरा बढ़ा रहे हैं और उसकी ज्ञान परंपरा को बचा रहे हैं।

डुओलिंगो और रोजेटा स्टोन से सीखें भाषाएं

इंटरनेट की मदद से भाषाओं को सीखना बहुत आसान है। अब पहले की तरह किसी खास अध्यापक की ट्यूशन लेना या किसी खास संस्था में जाकर भाषा सीखने की ज़रूरत नहीं रही। डुओलिंगो और रोजेटा स्टोन जैसे एप्लीकेशन, साफ्टवेयर और वेबसाइट की मदद से दूसरी भाषाओं को सीखना आसान हो गया है।

इससे इन भाषाओं का दायरा बढ़ता है, उन्हें बोलने-समझने वालों की संख्या बढ़ती है और उन्हें सुरक्षित रखना अधिक आसान हो जाता है। ऐसे भी एप्लीकेशन हैं जिनके जरिये कोई भी जानकार व्यक्ति शुल्क लेकर या शुल्क लिए बिना दूसरों को भाषाएं सिखा सकता है।

अन्य भाषाओं से संपर्क

मशीन अनुवाद न सिर्फ लगातार बेहतर हो रहा है बल्कि अब वह ज्यादा से ज्यादा भाषाओं में मौजूद है जिससे भाषाई दूरियां खत्म हो रही हैं। कल्पना कीजिए कि आप अपनी भाषा की सामग्री को डेढ़-दो सौ भाषाएं बोलने वाले लोगों तक पहुंचा सकें और उन भाषाओं की महत्वपूर्ण सामग्री अपनी भाषा बोलने वाले लोगों के बीच ला सकें, और वह भी चुटकियों में। गूगल और माइक्रोसाफ्ट जैसी कंपनियां अपने मशीन अनुवाद सेवाओं का दायरा लगातार बढ़ा रही हैं।

अब तो ध्वनि से ध्वनि में भी अनुवाद संभव हो गया है। खास बात यह है कि ऐसी सुविधाएं हर व्यक्ति की पहुंच में हैं। किसी पर्यटक के लिए दूसरे देश में घूमना फिरना आसान है, क्योंकि मोबाइल फोन के जरिये वह अपनी भाषा में बोलते हुए भी दूसरी भाषा बोलने वालों से संवाद कर सकता है।

भाषाओं को समृद्ध बनाना

इंटरनेट के कारण भाषाओं का प्रसार हुआ है तो नये लोग लिखने-पढ़ने के लिए आगे आ रहे हैं। धीमी पड़ रही भाषाओं के साहित्य में युवा पीढ़ी की बदौलत फिर से नई जान आ गई है। पुरानी पीढ़ी के पास जो कीमती सामग्री रखी थी, वह धीरे-धीरे पब्लिक डोमेन में आ रही है। भाषाई उत्सवों तथा कार्यक्रमों का आयोजन भी आसान हो गया है।

टेक्स्ट, आडियो और वीडियो के रूप में रचनाओं को पाठकों, दर्शकों तथा श्रोताओं के बीच ले जाना भी अब चुनौतीपूर्ण नहीं है और उन्हें हमेशा के लिए सहेजना भी। किताबें लिखना, पत्रिकाएं निकालना भी सरल है। ई-मार्केटप्लेस, आन डिमांड पब्लिशिंग के प्लेटफार्म तथा ई-पेपर, ई-बुक और ई-पत्रिकाओं की वेबसाइट भी हैं जिन पर न सिर्फ सामग्री रखी जा सकती हैं, बल्कि बेची भी जा सकती हैं।

संसाधन तैयार करना

भाषाई साहित्य तथा अन्य सामग्री को सहेजना अब अपेक्षाकृत सरल है। माइक्रोसाफ्ट के प्रोजेक्ट एलोरा के तहत गोंडी (मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना), मुंदारी (झारखंड, ओडिशा तथा बंगाल) और इदु मिश्मी (अरुणाचल प्रदेश) भाषाओं को सुरक्षित करने तथा आगे बढ़ाने का काम किया जा रहा है। गोंडी भाषियों का आनलाइन पोर्टल बनाया गया है और आदिवासी रेडियो के जरिए लोगों को अपनी भाषा में जानकारी दी जा रही है। अनुवाद प्रणाली पर भी काम चल रहा है।

इदु मिश्मी भाषा के लिए डिजिटल शब्दकोश बनाया जा रहा है। मुंदारी भाषा में बच्चों के लिए शिक्षण सामग्री बनाई जा रही है। ये सभी विलुप्तप्राय भाषाएं हैं। यूट्यूब, पाडकास्टिंग प्लेटफार्मों और विकीपीडिया जैसे मंचों के आने से भी सामग्री का दस्तावेजीकरण आसान हुआ है।

अब ओसीआर जैसी तकनीकों के जरिये मुद्रित पाठ के चित्र लेकर उसे डिजिटल टेक्स्ट में बदलना संभव है। आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस ने हस्तलिपि में मौजूद सामग्री का डिजिटाइजेशन भी आसान बना दिया है। प्रौद्योगिकी भाषाओं के सामने खड़ी बाधाएं दूर करने में मदद कर रही है।


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