सुर सम्राट स्व. गोपाल बाबू गोस्वामी
सुर सम्राट स्व. गोपाल बाबू गोस्वामी
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
बेड़ू पाको बारमासा, घुघुती न बासा, कैलै बजै मुरूली, हाये तेरी रुमाला, हिमाला को ऊंचा डाना, भुर भुरु उज्याव हैगो जैसे गीतों से प्राकृतिक सौंदर्य, लोक सौंदर्य, शृंगार रस, उत्तराखंड की सांस्कृतिक विरासत को सजाने वाले गोपाल बाबू गोस्वामी की आज जयंती है। लोक गायक गोपाल बाबू गोस्वामी की आवाज में एक अजीब सी खनक थी। वे गाते थे तो पहाड़ के कण कण को अपनी जादुई आवाज के मोह में बांध लेते थे। गोपाल बाबू गोस्वामी उत्तराखंड के कुमाऊंनी लोक गीतों के प्रसिद्ध गीतकार और गायक थे। उत्तराखंड राज्य में कई प्रसिद्ध लोकगायक हुए है, कुछ अधिक प्रसिद्ध हैं, कुछ कम प्रसिद्ध लेकिन अंत में वही यादों में रहते हैं जो लम्बे समय तक लोगों के दिलों पर राज करते हैं। कुछ ऐसे ही लोकगायक थे प्रसिद्ध कुमाऊँनी लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी जिनके गीतों ने उन्हें ही नही पूरे उत्तराखण्ड राज्य को भी एक सुरीली पहचान दी है उत्तराखंड के प्रसिद्ध लोक गायक गोपाल बाबू गोस्वामी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु उनके गीत हमें आज भी उनकी उपस्थिति का अहसास कराते हैं। जीवन के हर पहलू को छूते उनके गीतों की सूची लंबी है। गोपाल बाबू गोस्वामी जी का जन्म उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा जिले में ,चाखुटिया के चांदीखेत नमक गावं में 02 फ़रवरी 1941 को हुवा था। इनके पिता का नाम मोहन गिरी और माता जी का नाम चनुली देवी था। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा चखुटिया के सरकारी स्कूल में हुई थी। आठवीं पास करने से पहले ही, उनके पिता की मृत्यु हो गई। घर चलने की जिम्मेदारी अब उनके कन्धों पर आ गई। इसी जिम्मेदारी का निर्वाहन करने के लिए वे दिल्ली नौकरी करने गए। कई वर्ष दिल्ली में प्राइवेट नौकरी की। किन्तु स्थाई नहीं हो सके। स्थाई नौकरी की आस में दिल्ली हिमांचल पंजाब कई जगह गए। अंत में स्थाई नौकरी नहीं मिलने के कारण वापस अपने घर ,चांदीखेत चखुटिया आ गए। घर आकर उन्होंने खेती का काम शुरू किया। और खेती के काम में उनका मन लग गया।सन 1970 में उत्तर प्रदेश राज्य के गीत और नाट्य प्रभाग का दल किसी कार्यक्रम के लिए अल्मोड़ा के चखुटिया तहसील में आया था। यहाँ उनका परिचय गोपाल बाबू गोस्वामी जी से हुवा उनकी प्रतिभा देख कर वो भी प्रभावित हुवे बिना रह न सके। दल में आये एक व्यक्ति ने उन्हें ,गीत संगीत नाट्य प्रभाग में भर्ती होने का सुझाव दिया और साथ साथ , नैनीताल नाट्य प्रभाग का पता भी दे दिया। 1971 में उन्हें गीत संगीत नाट्य प्रभाग में नियुक्ति मिल गई।उन्होंने प्रभाग के मंच पर कुमाउनी गीत गाना शुरू किया। धीरे धीरे उन्हें कुमाउनी गानों से ख्याति प्राप्त होने लगी और वे प्रसिद्ध होने लगे। इसी बीच उन्होंने आकाशवाणी लखनऊ से अपनी स्वर परीक्षा भी पास कर ली फिर आकाशवाणी के गायक बन गए। पर्वतीय जनजीवन स्वभाव से ही प्रकृति की गोद में रचा बसा अत्यंत पीड़ादायक संघर्षपूर्ण जीवन है जिसकी व्यथा सर्वाधिक पहाड़ की नारी को ही सहनी पड़ती है. ससुराल हो या मायका उसके दर्द और विरह की वेदना गोपाल बाबू के गीतों में घुघुती की आवाज बनकर जिस प्रकार अभिव्यक्त हुई है वैसी मार्मिक अभिव्यक्ति अन्य गीतकारों द्वारा नहीं उभर पाई है. पहाड़ के संघर्षों और कठोर परिस्थितियों से उभरे उनके सुरीले गीत आज भी हमारे लोक सांस्कृतिक अहसास को संतृप्त करते हैं, कभी गुदगुदाते हैं तो कभी कभी कचोटते भी हैं. गोपाल बाबू गोस्वामी के गीतों ने पर्वतीय लोक संस्कृति के हर पहलू को छुआ है खासकर दु:ख, पीड़ाओं के अम्बार को झेलती प्रोषित नायिका की भांति नारी का दर्द उनके गीतों का मुख्य स्वर रहा है. शायद उन्हें नारी के प्रति इस संवेदना की अनुभूति अपने ही घर परिवार से मिली होगी.आकाशवाणी लखनऊ से गोपाल बाबू गोस्वामी जी ने अपना पहला गीत , ” कैले बजे मुरली “गया था। 1976 में उनका पहला कैसेट hmv ने बनाया था। उनके कुमाउनी गीत काफी लोकप्रिय हुए। और आज भी हैं। उनके गए अधिकतम गाने स्वरचित थे। उन्होंने कुमाउनी लोकगाथाओं पर भी कैसेट बनाये। राजुला मालूशाही , हरूहीत आदि ऐसी कई लोकगाथाओं पर उन्होंने गीत बनाये। गीत और नाट्य प्रभाग की गायिका श्रीमती चंद्र बिष्ट के साथ उन्होंने लगभग 15 कैसेट बनाये। गोपाल बाबू गोस्वामी जी ने हिरदा कुमाउनी कैसेट कंपनी से भी कई गीत गाये। गोपाल बाबू गोस्वामी जी ने कुछ हिंदी और कुमाउनी पुस्तकें भी लिखी। जिसमे गीतमाला (कुमाउनी) दर्पण , राष्ट्रज्योति , उत्तराखंड हिंदी किताब थीहिमाला का ऊंचा डाना प्यारो मेरो गांव.., कैले बजै मुरूली ओ बैंणा.., भुर भूरू उज्यावो हैगो.. मेरी बाना होसिया ओ सुवा ओ.., जा चेली जा सौरास.. व आज मंगना आयो रि तेरो सजना.. जैसे लोकगीतों के मधुर स्वर आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में गूंजते हैं। ये वो रचे-बसे गीत हैं जो उत्तराखंड ही नहीं वरन देश के कोने कोने में पहाड़ की माटी की सुगंध महका देते हैं। ऐसे तमाम मधुर गीतों को आवाज देने वाले प्रसिद्ध लोकगायक सुर सम्राट गोपाल बाबू गोस्वामी थे।बेशक सुरीली आवाज के धनी गोपाल बाबू गोस्वामी आज हमारे बीच नहीं हैं, उनके गीतों के मधुर स्वर आज भी पहाड़ वासियों के दिलों में रचे बसे हैं।बारात विदाई के दौरान गाए जाने वाले गीत यथा-ओ मंगना आज आयो रि तेरो सजना.., जा चेलि जा सौरास.., बाट लागि बरात चेलि बैठ डोलिमा.. जैसे विरह गीत सुनकर लोगों के आंसू छलक उठते हैं। देवी बराही मेरी सेवा लिया.. वंदना गीत आज भी यत्र-तत्र सुनते को मिलता है। गोपाल बाबू ने गीतों पर आधारित कई पुस्तकें भी लिखी हैं। जिनकी बाजार में काफी मांग है. दरअसल, गोपाल बाबू गोस्वामी की एल्बम के कुछ सदाबहार गीत ऐसे हैं, जिनमें उत्तराखंड की लोक संस्कृति में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करनेवाली नारी विषयक सहानुभूति और सांत्वना के स्वर एक सहृदय के आंखों में आंसु ला देते हैं. ‘न रो चेली न रो मेरी लाल, जा चेली जा सरास’ हर किसी को रूला देने वाला दुल्हन की विदाई का उनका अत्यंत ही मार्मिक स्वर है तथा दुल्हन की विदाई के समय इस गीत के बोल उस क्षण को कितना गमगीन और करुणामय बना देते हैं इसका अहसास हम सब को किसी भी विवाह कार्यक्रम में होता आया है.“संभल संभल पग धरियो रे लाडो देश बिराना जाना है.” जैसे गीतों में पहाड़ की विवाहिता बेटी के लिए पिता द्वारा विदाई के समय जो एक सन्देश दिया गया है वह भी बहुत हृदयस्पर्शी है. “भुरु भुरु उज्याव है गो” गीत में नारी सबसे पहले पनघटों से पानी भरते दिखाई देती है तो खेत खलिहान भी उसी के कठोर प्रयास से हरे भरे रहते हैं. नारी के इस कर्मयोगी जीवन दर्शन को गोपाल बाबू के गीतों में मार्मिक अभिव्यक्ति मिली है. उनका एक बहुत ही लोकप्रिय गाना है “काली गंगा को कालो पाणी”.इसमें विरह से तड़पती पहाड़ की नारी की उदासी की पीड़ा (निशास) को बालू की तपती रेत में तड़पती मछली की तरह व्यक्त किया गया है गोस्वामी जी का कंठ मधुर था वे ऊंचे पिच के गीत गाने में विशेष माहिर थे. उन्होंने कुछ युगल कुमाउनी गीतों के भी कैसेट बनवाए . गीत और नाटक प्रभाग की गायिका श्रीमती चंद्रा बिष्ट के साथ उन्होंने लगभग 15 कैसेट बनवाए. गोस्वामी जी ने कुछ कुमाउंनी तथा हिंदी पुस्तकें भी लिखी थी जिनमें से मुख्य रूप से “गीत माला (कुमाउंनी)” “दर्पण” “राष्ट्रज्योती (हिंदी)” तथा “उत्तराखण्ड” आदि उल्लेखनीय हैं. उनकी एक पुस्तक “उज्याव” प्रकाशित नही हो पाई. उनके द्वारा गाए अधिकांश कुमाउंनी गाने स्वरचित थे. मालूशाही तथा हरुहित के भी उन्होंने कैसेट बनवाए थे. जीवन के 54 सालों में उन्होंने साढे़ पांच सौ से भी अधिक गीत लिखे हैं तथा उनके द्वारा गाये गये सदाबहार गीतों ने कुमाउंनी लोक संस्कृति को गौरवान्वित करने के साथ साथ एक कलात्मक सांस्कृतिक पहचान भी दी है. पर्वतीय जनजीवन में पहाड़, नदी, पेड़, पौधे और घुघुती आदि उनके सुख दुःख के पर्यावरण मित्र हैं. ये ही वे पांच तत्त्व हैं जिनसे किसी कविता या गीत की आत्मा बनती है,जिसे हम शास्त्रीय भाषा में लोकगीत कह देते हैं. बाद में मेले त्योहारों में इनकी सामूहिक प्रस्तुति झोड़े, चांचरी,भगनौल,आदि का रूप धारण करके ये लोक संस्कृति का रूप धारण कर लेते हैं. जयंती विशेष: ‘आमै की डाई मा, घुघुती न बासा’ गाने वाले गोपाल बाबू गोस्वामी ऐसे बने गायक हिंदी फिल्म किनारा में एक गीत है- नाम गुम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान है, गर याद रहे…सुर सम्राज्ञी लता मंगेश्वकर और भूपेंद्र के गाए इस गीत के बोल लोकप्रिय कुमाऊंनी लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी पर भी सटीक बैठते हैं. आज गोपाल बाबू गोस्वामी की जयंती है., लेकिन उनकी सुमधुर आवाज आज भी कानों के रास्ते दिल में पहुंचती है.एक लोकगायक, एक मधुर स्वर और एक उत्तराखंड की महान धरोहर. गोपाल बाबू गोस्वामी आज भले ही हमारे बीच नहीं रहे पर उनका मधुर स्वर ‘कैले बजै मुरूली ओ बैणा’ पहाड़ की गिरि कंदराओं में सदा गूंजता रहेगा. लोकगायक गोपाल बाबू गोस्वामी की जन्मजयंती के उपलक्ष्य में उन्हें शत शत नमन
.लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।
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