उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में लगातार बादल फटने का सच
उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में लगातार बादल फटने का सच
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सी एम पपनैं
उत्तराखंड। उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे पिछले कई दिनों से बादल फटने का क्रम, कुछ ज्यादा ही बढ़ता नजर आ रहा है। भूस्खलन हो रहा है। मलवा इकठ्ठा हो रहा है। पानी खेतो मे घुस कर, गेहूं की फसल को पूरी तरह नष्ट कर रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों के सम्पर्क मार्ग क्षतिग्रस्त हो रहे हैं। दुकान,मकान, वाहन तथा पालतू पशु मलवे मे दब ढेर हो रहे हैं। यह सब भारी तबाही की ओर इशारा कर रहा है।
अवलोकन कर पुष्टि होती है, हाल के कुछ वर्षों में उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में बादल फटने की घटनाऐ, बड़ी तेजी से बढ़ी हैं। पूर्व मे जो गिनी चुनी घटनाऐ, सिर्फ मानसून के समय होती थी, अब कभी भी, और कहीं भी, घटती देखी-सुनी जा सकती हैं।
विगत तीन, चार, पांच व छह मई से लगातार उत्तराखंड के पर्वतीय सम्भाग मे कहीं न कहीं बादल फट रहे हैं। तबाही मच रही है। टिहरी जिले के जौनपुर विकास खंड के थत्युड क्षेत्र में, ग्राम कण्डाल के ऊपर। रुद्रप्रयाग जिले के, फतेहपुर व नरकोटा। बच्छणस्यू पट्टी के, ग्राम पंचायत खांकरा और अलकनंदा नदी के ठीक सामने कोटली भरदार। जखोली ब्लाक के कोटली गांव। सीमांत चमोली जिले के, नंद प्रयाग घाट क्षेत्र। विनसर पहाडी के चिनाडोल नामक तोक। चौखुटिया के नजदीक चितैली महाकालेश्वर क्षेत्र तथा नई टिहरी मे जाखडीधार ब्लाक के ढुंगमंदार पट्टी के ग्राम पिपोला (ढुंग) मे तीन अलग-अलग जगहो, अनगढ़ नामे तोक, डांग नामे तोक और कैलानामे तोक मे बादल फटने की घटनाऐ सामने आई हैं। इनमे दो क्षेत्रों मे तीन जगहो पर
एक ही दिन मे, बादल फटने की घटना सामने आयी है।
इन्ही दिनों, चमोली जिले के रैणी गांव के इर्द-गिर्द हुई मूसलाधार बारिश के बाद, अचानक एक बार फिर, ऋषि गंगा का जल स्तर बढ़ने से, ग्रामीण अफरा-तफरी मे भागने को मजबूर हुए हैं। ग्रामीणों द्वारा, तीन किलोमीटर ऊपर जंगल की पथरीली गुफाओ मे, रात बिताए जाने की सूचना है।
उक्त गांव के ग्रामीणों के मध्य अभी भी, विगत 7 फरवरी 2021 के दिन घटी घटना का भय, व्याप्त है। जब रैणी गांव के समीप एक विशाल हिमखंड टूट कर, पहाडो से दरकता हुआ, धौली गंगा व ऋषि गंगा मे समा, भीषण बाढ़ का रूप रख, गांव के नजदीक खेतो मे काम कर रहे, अनेक ग्रामीणों के साथ-साथ हाइड्रो पावर के सैकडो कर्मचारियो व मजदूरों को लील गया था।
इसी प्रकार, वर्ष 2013 मे 16 व 17 जून को केदारनाथ मे हुए महाप्रलय के मंजर को याद कर, उत्तराखंड के स्थानीय जनमानस की रूह कांप जाती है। जिस महाप्रलय मे, हजारो लोग मलवे मे दफन हो गए थे, बह गए थे या लापता हो गए थे।
मौसम विज्ञानियों के अनुसार जब बादल भारी मात्रा मे पानी लेकर चलते हैं, उनकी राह मे कोई बाधा, जैसे गर्म हवा का झोंका, ऐसे बादल से टकराता है, तो बादल अचानक फट पड़ते हैं। बादल फटना बारिश का एक चरम रूप है। इस घटना मे कभी गरज के साथ, ओले भी पडते हैं। कुछ मिनट तक मूसलाधार बारिश या ओले गिरते हैं। उक्त प्रभावित क्षेत्र मे, दो सेंटीमीटर तक मूसलाधार बारिश या ओलो से बाढ़ जैसी स्थिति, पैदा हो जाती है। भू-स्खलन आरंभ हो जाता है। तबाही का मंजर दिखने लगता है।
उत्तराखंड के पर्वतीय सम्भाग का अवलोकन कर ज्ञात होता है, मानवीय गतिविधियों द्वारा, प्रकृति को असंतुलित किया जा रहा है। विकास के नाम पर प्राकृतिक नियमो एव वैज्ञानिक तथ्यों की अनदेखी व अवहेलना कर, पहाडो को नष्ट किया जा रहा है। यही वह मुख्य वजह रही है, जिससे समय-समय पर उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे आपदाओ का शिलशिला चल पड़ा है। प्राकृतिक आपदाऐ, नियति सी बन गई हैं।
उत्तराखंड मे अक्सर बादलो का फटना, भू-स्खलन होना, छोटे मोटे भूकंपो का आना, हिमपात मे ग्लेशियरो से हिमखंडों का टूट, नदी मे गिर, झील बन, अक्समात टूट कर रौद्र बाढ़ का रूप रखना, जंगलो मे आग लगना, ऐसी आपदाऐ हो गई हैं, जिनसे प्रकृति व पर्यावरण के नुकसान के साथ-साथ प्रदेश के स्थानीय जनमानस को भारी जानमाल का नुकसान उठाना पड़ रहा है। अचानक घट रही घटनाओ के कारण दिन-रात भय के माहोल मे, जनमानस को जीने को विवश होना पड़ रहा है।
पर्यावरण व भू-विशेषज्ञो के कथनानुसार, उत्तराखंड मे जितनी भी बड़ी-बड़ी निर्माण योजनाएं, परियोजनाएं बनाई जा रही हैं, चाहे वह चारधाम सड़क परियोजना हो, बड़े-बड़े बांध हों, बिजली परियोजनाएं हों या फिर रेलवे के निर्माण कार्य इत्यादि, इन सभी मे, जमीन की ऊपरी सतह सीमेंट के निर्माण कार्य या किसी भी ढांचे से ढक दी गई है। जो ऊष्मा या गर्मी को मिट्टी में समाहित करने के बजाय, दुष्परिणामों मे परिवर्तित हो रही है। इन तमाम बड़ी-बड़ी परियोजनाओं से निकलने वाली लाखों टन मिट्टी और अन्य मलवा, जगह-जगह लापरवाही मे फेंक दिया जाता है। नदियों के प्रदूषण पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उक्त क्षेत्रों का क्लाइमेट बहुत अधिक प्रभावित हो रहा है। तापमान में बदलाव आ रहा है।
जंगलों में लगने वाली आग भी पर्यावरण व तापमान को भारी क्षति पहुचा रही है। क्योंकि आग लगने से गर्म हवाएं ऊपर उठती हैं और खाली स्थान को भरने के लिए ठंडी हवाएं बड़ी तेजी से उस जगह पर आती हैं। जिससे बादल बनने की प्रक्रिया बहुत तेजी से बढ़ जाती है। जिससे बादल फटने जैसी घटनाऐ, लगातार बढ़ती जा रही हैं।
अवलोकन कर व्यक्त किया जा सकता है, आज हम प्रकृति के साथ नहीं, बल्कि उसकी कीमत पर विकास कर रहे हैं। आपदाओ को अवसर बना कर चल रहे हैं। अपने अस्तित्व को अपने ही क्रियाकलापो के कारण, खतरे मे डाल रहे हैं।
पर्यावरण विशेषज्ञों व भू-विज्ञानियो के अनुसार,
मध्य हिमालयी क्षेत्र, पर्यावरणीय दृष्टि से बेहद संवेदनशील है। भौगौलिक दृष्टि से बहुत नाजुक। इस लिहाज से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के विकास का मॉडल, वह नहीं हो सकता, जैसा कि अन्यत्र अन्य जगहो का। इस महत्वपूर्ण बात को हमारे योजनाकारों को समझना होगा। कार्य रूप में लाना होगा। तभी उत्तराखंड के पर्वतीय भू-भाग मे निवासरत जानमानस का हित, साधा जा सकता है।
आज के इस कठिन दौर में जब एक तरफ, कोरोना विषाणु संक्रमण के कारण आम जनता की जद्दोजहद जारी है, वहीं दूसरी ओर घट रही प्राकृतिक घटनाओ ने उत्तराखंड के ग्रामीण जनमानस के मनोबल को बुरी तरह से झकझोर सा दिया है। ऐसे मे अगर हमारे योजनाकार प्रकृति के साथ भारी-भरकम छेड-छाड़ वाली योजनाओ, परि-योजनाओ को प्राथमिकता न देकर, प्रकृति को पोषण देने वाली योजनाओ पर ध्यान केन्द्रित करने लग जाए, तो घट रही आपदाओ के विनाश को कम किया जा सकता है। जनमानस को आपदाओ के भय से मुक्ति दिला, सकून की जिंदगी जीने का अवसर दिया जा सकता है।
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