भाजपा टिकट का सवाल निशंक के अलावा भी हैं दावेदार
इरफान अहमद
सिटिंग एम पी होने के नाते हरिद्वार सीट पर डा. रमेश पोखरियाल निशंक भाजपा टिकट के स्वाभाविक दावेदार हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि यहाँ और दावेदार नहीं हैं। फिर भी टिकट के मामले में इतना अहम मसला दावेदारों की हैसियत नहीं जितनी सूबाई सत्ता का समीकरण है। डा. निशक के सामने टिकट पर दावा चाहे जो करे उसे सूबाई सत्ता का आशीर्वाद मिलना तय होगा।
पिछली बार डा. निशक ने टिकट मदन कौशिक को मात देकर हासिल किया था। तब टिकट के अन्य प्रबलतम दावेदार नरेश बंसल, जो आज दर्जा प्राप्त कैबिनेट मंत्री और पार्टी महासचिव हैं और पूर्व गृहराज्यमंत्री स्वामी चिन्मयानंद थे जो सन्यासी हैं। तब स्वामी-अग्रवाल के सामूहिक विरोध का केंद्र कौशिक थे। यही कारण है कि सर्वसम्मत प्रत्याशी के रूप में निशंक सामने आये थे।
नरेश बंसल टिकट पर इस बार भी दावा कर रहे हैं लेकिन इस बार टिकट के प्रबलतम दावेदार प्रोफेसर नरेंद्र सिंह हैं जो मुख्यमंत्री के राजनीतिक सलाहकार हैं। उन्होंने खुलेआम स्थानीय की अलख भी जगाई हुई है। वे दोनों काम कर रहे हैं। स्थानीय की अलख भी जगा रहे हैं और जन-संपर्क भी कर रहे हैं। ज़ाहिरा तौर पर इस मुहीम से कौशिक का कोई सम्बन्ध नहीं दीखता। वे टिकट पर दावा भी नहीं कर रहे हैं और जैसी चर्चा है, वे डा. निशक के साथ सुलह भी कर चुके हैं। ज़ाहिर है कि उनके समर्थक किसी की दावेदार का समर्थन या विरोध नहीं करते मगर आपसी बातचीत में प्रोफेसर नरेंद्र सिंह के मुद्दे मुद्दे का समर्थन करने से भी नहीं चूकते।
अब स्थिति यह है कि टिकट की दौड़ में ज़ाहिरा तौर पर कौशिक कहीं नहीं हैं। नरेंद्र सिंह आक्रामक और नरेश बंसल रणनीतिक तरीके से टिकट पर अपना दावा ठोक रहे हैं। स्वामी चिन्मयानंद भी ख़ामोशी के साथ अपनी संभावनाओं को टटोल रहे हों तो कोई ताज्जुब की बात नहीं। सवाल यह है कि स्थानीय के मुद्दे पर अगर प्रोफेसर नरेंद्र सिंह पार्टी हाई कमान को समझाने में कामयाब हो जाते हैं तो भी क्या डा. निशक को किनारे करने में वे कामयाब हो जाएंगे? क्या डा. निशंक ख़ामोशी से किनारे हो जाएंगे? क्या स्थिति वही नहीं बन जायेगी जो 2014 में थी। यानि निशंक नहीं तो नरेंद्र सिंह भी नहीं। फिर कौन?
इस फिर कौन का जवाब इस बात पर मुनहसर है कि बाकी दावेदारों में ऐसा कौन है जो सूबे की सियासत को प्रभावित करने की हैसियत रखता हो? प्रोफेसर नरेंद्र सिंह के सर पर मुख्यमंत्री का हाथ नहीं तो वे राजनीतिक रूप से जीरो हैं। नरेश बंसल पार्टी संगठन में एक निश्चित हैसियत रखते ज़रूर हैं लेकिन वे निर्णायक कहीं नहीं हैं। ये दोनों दरअसल ऐसे पत्ते हैं जिनका प्रभाव तभी है जब ये किसी और हाथ में हों। साफ़ दिख रहा है कि ये दोनों ही मुख्यमंत्री के हाथ में हैं। इसी बिंदु पर आकर लगता है कि बाज़ी दरअसल निशंक और मुख्यमंत्री के बीच बिछी हुयी है और बिसात पर सांसद टिकट नहीं बल्कि मुख्यमंत्री की कुर्सी है। ज़ाहिर है कि मुख्यमंत्री को पूर्व मुख्यमंत्री से दिक़्क़त है। सवाल यह है कि क्या मुख्यमंत्री नरेंद्र सिंह या नरेश बंसल के माध्यम से निशंक को पैदल कर सकते हैं? जवाब यह है कि नहीं। ये दोनों मिलकर निशंक के टिकट पर बहस तो खड़ी करा सकते हैं, करा रहे हैं लेकिन टिकट हासिल नहीं कर सकते। तो फिर कौन? दरअसल यही तीसरा है निशंक के टिकट को बेहद खामोश चुनौती दे रहा है। इसी पर हम अपनी अगली रिपोर्ट में चर्चा करेंगे। और इस बात पर भी कि चुनाव कार्यक्रम घोषित होने के ऐन पूर्व सी एम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने हरिद्वार के चार दौरे क्यों किये?
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