वैसे हरिद्वार कांग्रेस के हाथ में नहीं रहती प्रत्याशी की हार जीत हरीश रावत ने खुद लिखा था अपनी जीत का दस्तावेज़
इरफान अहमद
किसी का पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के साथ व्यक्तिगत विरोध हो तो भी उसे इतना तो मानना ही पड़ेगा कि 2009 में हरिद्वार सीट पर उनकी शानदार जीत उनके अपने राजनीतिक कौशल का कमाल थी। इसी प्रकार 2014 में नरेंद्र मोदी की आंधी में भी सवा चार लाख वोटों का ज़बरदस्त समर्थन उनकी अपनी, व्यक्तिगत उपलब्धि थी। इन दोनों ही चीज़ों में हरिद्वार कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी। ऐसे में अगर वे 2019 में यहाँ कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में मैदान में आते हैं तो उनका नतीजा उनकी व्यक्तिगत उपलब्धि या नाकामी होगी। कांग्रेस शायद ही इसमें कोई भूमिका निभाने की स्थिति में रहे।
कांग्रेस सौ से अधिक साल पुरानी पार्टी है। स्वाभाविक रूप से उसका ढांचा हरिद्वार में भी दशकों से बना और चला आ रहा है। लेकिन पार्टी को इस क्षेत्र में विजय तभी मिलती थी जब पार्टी हाई कमान का नाम और सिक्का चलता था। यह तब की बात है जब अभी भाजपा अस्तित्व में नहीं आई थी। बात भाजपा की ही है, किसी और दल की नहीं। इतिहास गवाह है कि आधुनिक इतिहास में हरिद्वार लोकसभा सीट महज़ एक बार, जब 2004 में यहां सपा जीती थी, गैर-कांग्रेस-गैर-भाजपा दलों से बाहर गई है। 1980, 1984, 1987 (उप-चुनाव) व 1989 में यहाँ कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। कमाल यह था कि 1989 का चुनाव बोफोर्स के साए में हुआ था और आसपास की सीटों पर वीपी सिंह का जनता दल जीता था। वीपी सिंह वाया जनमोर्चा जनता दल में आये थे और जनमोर्चा का गठन उन्होंने हरिद्वार में ही किया था। इसके बावजूद यहाँ जनता दल लोकसभा का चुनाव हारा था, हालाँकि हरिद्वार विधानसभा सीट तब जनता दल ने ही जीती थी। तब जनता दल का भाजपा के साथ गठबंधन भी था।
बहरहाल, 1991, 96, 98 व 99 के चार लोकसभा चुनाव जीतकर भाजपा ने यहाँ अपना ज़बरदस्त दबदबा कायम किया था। इन चारों चुनाओं में यहाँ कांग्रेस की उपस्थिति औपचारिक रही थी। 2004 का चुनाव उत्तराखंड गठन के बाद हुआ था और आश्चर्यजनक रूप से यह सीट सपा के खाते में गई थी, वह भी तब, जब सहारनपुर ज़िले की देवबंद और नागल विधानसभा सीटें इससे कट गई थी और यह सीट महज हरिद्वार ज़िले में सिमट गई थी। 2009 के लोकसभा चुनाव से पूर्व इसमें देहरादून ज़िले की डोईवाला, ऋषिकेश और धर्मपुर सीटें जुडी थी और इस चुनाव में हरीश रावत ने कांग्रेस को जीत दिलाई थी। इस प्रकार कांग्रेस को बीस साल बाद जाकर लोकसभा चुनाव में जीत हासिल हुई थी। इन बीस सालों ने साबित कर दिया था कि हरिद्वार की जनता का न तो कांग्रेस नेतृत्व में विश्वास था और न ही उसके स्थानीय चेहरों में। इस बात को हरीश रावत ने भी समझा था। यही कारण है कि उन्होंने अपना चुनाव अभियान खुद संचालित किया था। उन्होंने हरिद्वार ज़िले के करीब एक दर्जन कद्दावर नेताओं समेत क़रीब चार दर्जन नेता सपा-बसपा से लाकर अपने समर्थन में खड़े किये थे। तब कहीं जाकर कांग्रेस का सर ऊँचा हुआ था। हालाँकि यह हकीकत है फिलहाल हरीश रावत की अपनी टीम के ही कई लोग उनके खिलाफ खड़े हैं। इन्हीं में कुछ टिकट भी मांग रहे हैं। आने वाले एक सप्ताह में स्पष्ट हो जाएगा कि यहाँ चुनाव रावत लड़ते हैं या कोई और। लेकिन यह तय है कि हरीश रावत के परिणाम में स्थानीय कांग्रेसियों की कोई भूमिका नहीं होगी
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