कुमाऊंनी होली के अंग्रेज भी थे दीवाने
कुमाऊंनी होली के अंग्रेज भी थे दीवाने
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालय के प्रांगण में स्थित, देवताओ की अवतार स्थली ,ऋषि मुनियों की तपोभूमि उत्तराखंड अपने नैसर्गिक सौंदर्य के लिए विश्व भर में जाना जाता है. अभाव,कठोर परिश्रम,संघर्ष में भी वहां के लोग अपने लिए खुशियों के पल जुटा ही लेते हैं. जीवन यापन का प्रमुख साधन खेती होने के कारण वहां तीज– त्योहार, मेले– उत्सव सभी कृषि से जुड़े होते हैं. होली ऐसा ही एक परम्परागत त्योहार है, जो वहां के संघर्ष भरे जीवन में नव उमंग व नव उत्साह लेकर आता है. उत्तराखंड में बसंत पंचमी (इसे माघ शुक्ल पंचमी भी कहते हैं ) से शीत ऋतु की समाप्ति मानी जाती है. पूरी धरती प्योली, बुराँस, दुदभाति, दाड़िम,सरसों के पुष्पों का पिछौड़ा (चूनर) ओढ़ दुल्हन सी इठलाती है. नई फसल कटकर खलिहानों से घर आती है. और अगली फसल के लिए खेतों में बुआई का काम शुरू हो जाता है. प्रकृति नाचती है, तो मन भी नाचता है.आर्यों के हृदय प्रदेश देवभूमि की कुमाऊंनी होली यूं ही विशिष्ट और अनूठी नहीं है। यहां की गायन शैली में ब्रह्मर्षि देश (वर्तमान उत्तर प्रदेश) के पूरब, पश्चिम और उत्तर का बेजोड़ सांस्कृतिक समागम इसे सबसे जुदा बना देता है। पौष के प्रथम रविवार से फाल्गुन की कृष्ण पूर्णिमा तक अवधी, ब्रज और हिमालयी संस्कृति व भाषाबोली का ऐसा अद्भुत महामिलन देवभूमि में ही दिखता है। अवध में रघुनंदन होरी खेलते हैं, ब्रजधाम में कन्हैया तो हिमालयी वादियों में उत्तराखंड के अराध्य कैलासवासी शिव भी फाल्गुनी रंग में रंगने से खुद को रोक नहीं पाते। वहीं गिरजापति नंदन गजानन का अद्भुत वंदन होता है।अवधी में रचीबसी राम की नगरी और शोरसेनी (ब्रज) बोली से लबरेज कृष्ण की मायानगरी से देवाधिदेव की जटाओं से हिलोरी लेती गंगा जमुनी सभ्यता वाले प्रयागराज तथा काशी की रागरागिनियों में लिपटी शब्दयात्रा देवभूमि में पहुंचते ही समूचे उत्तर भारत की मिश्रित गायनशैली का अलौकिक केंद्र बन जाती है। खास बात कि सिया राम, राधा कृष्ण, उमा महेश व गणपति के फाल्गुनी बयार में रमते ही शक्ति की प्रतीक मां भगवती का दरबार भी भक्तिरस से अभिभोर हो उठता है।प्रकृति पुरुष शिव और पालनहार भगवान विष्णु के कूर्मावतार वाले उस रंग बिरंगे कुमाऊं की सैर पर जहां अबीर गुलाल की रंगत में भक्तिरस से शुरू बैठकी होली और फिर खड़ी होली विदाई लेते लेते विशुद्ध भारतीय शास्त्रीय रागों व छंदों से सजी प्रेम, हास्य व श्रृंगाररस में तर हो जाती है। होली की शुरूआत कुमाऊं में कब हुई, यह आज भी शोध का विषय है। मगर धार्मिक कथाओं व लोकगाथाओं की ओर ध्यान लगाएं तो आर्यों की अग्निहोत्र परंपरा होली उत्सव के सदियों पुराना होने की गवाही देती है। ‘सर्वे भवंतु सुखिन:…’ का भाव लिए सामाजिक समरसता, मेलमिलाप और मेलजोल बढ़ाने की यह अनूठी संस्कृति आर्यों की अग्निहोत्र परंपरा का अभिन्न हिस्सा रही है।जहां तक उत्तराखंड में कुमाऊंनी होली गायन और उसकी शैली का सवाल है तो अवधी व ब्रज बोली का सुंदर समावेश इसके इतिहास को रोचक बना देता है। काली कुमाऊं (वर्तमान चंपावत) कुमाऊंनी होली गायन का मुख्य प्रसार केंद्र रहा है।कुमाऊंनी होली पर अध्ययन कर संकलन तैयार कर चुके रचनाकार शिवदत्त पेटशाली के अनुसार सूर्यवंशी व चंदराजवंश ने उत्तराखंड में विस्तार लिया तो अवध, प्रयागराज, काशी, ब्रजधाम, मथुरा आदि क्षेत्रों के गायक, रचनाकार व प्रकांड पंडितों ने भी यहां का रुख किया।राजदरबार या मंदिरों में सुरसंगीत की लहरियां गूंजती थीं। फाल्गुन में तो बरसाने का जिक्र, कृष्ण की लीलाओं और अयोध्या में प्रभु राम की महिमा में लिपटे होली गीत विशुद्ध शास्त्रीय रागों पर गाए जाते थे।चंदवंशी राजाओं ने पूरब, पश्चिम व उत्तर की मिलीजुली बोली में होली गायन की अनूठी शैली को न केवल प्रोत्साहित किया बल्कि विशुद्ध अवधी व ब्रज की मिश्रित बोली में गाई जाने वाली कुमाऊंनी होली को भारतवर्ष में नई पहचान दिलाने में अतुलनीय योगदान दिया। इसकी झलक आज भी मिलती है। चंद राजवंश ने अपनी राजधानी चंपावत से अल्मोड़ा स्थानांतरित की तो शास्त्रीय संगीत के माहिर, शौकीन व गायक भी साथ आए। धीरे-धीरे चंद राजाओं की राजधानी अल्मोड़ा ने काशी, कश्मीर, बोधगया, अवध आदि के प्रकांड विद्वानों के बीच शास्त्रार्थ के साथ गीत संगीत की महफिलों के रूप में पहचान बना ली।कुमाऊंनी होली गीतों के मर्मज्ञ एवं साहित्यकार जुगलकिशोर पेटशाली कहते हैं कि चंद राजवंश के पुरोहित मंडल में शुमार सतराली (ताकुला ब्लाक) गांव में करीब 500 वर्ष पूर्व संगीत के शौकीन राजपुरोहितों ने विशुद्ध कुमाऊंनी बोली यानि आंचलिक बोली में होली गायन की परंपरा का श्रीगणेश किया।माना जाता है कि लोहनी (पहले लाहुमी) परिवार के संगीतज्ञों ने इस शैली के प्रचलन की शुरूआत की। सतराली से ही कुमाऊंनी होली जिला मुख्यालय के करीबी गांवों तक पहुंची। अल्मोड़ा नगर से लगा समीपवर्ती शैल गांव तो होली गायिकी की साधना स्थली ही बन गया।बाद में अल्मोड़ा इसका मुख्य केंद्र बना। यहीं से सोमनाथ नगरी यानि संपूर्ण बौरारौ घाटी (सोमेश्वर), बागेश्वर, रानीखेत, द्वाराहाट, चौखुटिया, स्याल्दे, सल्ट समेत पूरे पालीपछाऊं परगने में कुमाऊंनी होली की गायनशैली रग रग में बस गई। इसी अवधि में यह गायनशैली नैनीताल जिले के गांव-गांव तक पहुंची।होली गायक बृजेंद्र लाल साह, मोहन उप्रेती, प्रेम मटियानी आदि ने कुमाऊंनी होली को नया सुर दिया तो पंडित और साह घरानों ने कुमाऊंनी होली और इसकी गायनशैली को जीवंत रखा है। हालांकि ब्रज व अवधी पुट अब भी बना हुआ है। कुमाऊंनी होली कुमाऊं की अनमोल सांस्कृतिक विरासतों में एक है। फाल्गुनी रंग में रंगी वासंती मादकता से सराबोर पर्वतीय आभा देशभर में बेजोड़ है। पक्के रागों में आबद्ध यहां की बैठकी होली और विभिन्न धुनों पर थिरकने को मजबूर कर देती खड़ी होली इसे और भी मनोहारी बना देती है।कुमाऊंनी बोली में इसका गायन इसे और विशिष्टता प्रदान करता है। ब्रज, अवधी व आंचलिक बोली मिश्रित यह होली अपने आप में अनूठी है। बरसाने की भांति कुमाऊं में भी बैठकी होली का दौर पौष में श्रीणेश जबकि रंगोत्सव का शुभारंभ फाल्गुन शुक्ल पक्ष की एकादशी को होता है।ब्रज की ही तरह पहाड़ में होली तीन चरणों में होती है। मसलन, पहले दो चरण भक्तिरस प्रधान तो तीसरी खड़ी होली में भक्ति व प्रेमरस के साथ श्रृंगारिक हो जाती है। कुमाऊंनी होली गायनशैली में राग भैरवी, ब्रजधाम में रचाबसा धमार, पीलू, बागेश्री, जैजवंती, खमाज आदि रागों की प्रधानता रहती है। खास बात कि बढ़ते प्रहर के अनुरूप रागों का अनुसरण करने की परंपरा है। होली खेलें महादेव, देवलोक में रंगवा उड़ावेमिलन व समदर्शिता के प्रतीक होली खासतौर पर देवभूमि में शिव व शक्ति प्रधान हो जाती है। फाल्गुन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन विवाह के बाद कैलासवासी शिव तथा पार्वती के अलौकिक प्रेम और सहचर्यता के रस को देवभूमि की धरा जैविक रस से तरबतर हो उठी। धरती की सृजनात्मक शक्ति जाग्रत हो नई कोपलों के रूप में प्रस्फुटित हुई।विविध रंगों से वातावरण वासंती और सुरमई हवा से अजब सा संगीत गुंजायमान हो उठा। इस अकल्पनीय दृश्य के साक्षी भगवान विष्णु भी रहे। उनके मन का प्रवाह भी इस कदर बह चला कि भक्त एवं रसिक दोनों विभोर हो उठे।विष्णु की यही चपलता द्वापर युग के अवतार कृष्ण में समाहित हुई, जो राधा व गोपियों संग उनके अद्भुत तथा निश्छल प्रेम के रूप में प्रकट हुई। और अवध से ब्रज होते हुए कुमाऊं तक पहुंची कुमाऊंनी होली में शिवमहिमा की भी प्रधानता है। यही वजह है कि शक्ति के साथ शिव मंदिरों में रंग चढ़ा सामूहिक होली गायन की पुरातन परंपरा है। कुमाऊं की काशी विश्वनाथ, द्वाराहाट में विभांडेश्वर तीर्थ, बदरी व केदार मंदिर, जागेश्वरधाम, सतराली समेत तमाम गांवों के हाेरियारों की टोलियां बागेश्वरधाम में पहुंचती हैं। कुमाऊं की होली भी काफी खास है।अपने आप मे कुमाऊं की सांस्कृतिक विशेषताएं समेटे हुए है। जिसके चलते कुमाऊं की होली भी लोगो की बीच काफी प्रसिद्ध है। कुमाऊँ की होली ना केवल उत्तराखंड मे मनाई जाती है। बल्कि पूरे भारत मे जहाँ जहाँ भी कुमाऊंनी लोग बहुतायत संख्या मे है वहा सभी जगह कुमाऊंनी होली मनाई जाती है। उत्तराखंड के कुमाऊँ में रामलीला की तरह फ़ाग का त्योहार होली भी अपने आप अलग ढंग से मनाया जाता है। कुमाऊं में होली की चार विधाएं हैंखड़ी होली, बैठकी होली, महिलाओं के होली, ठेठर और स्वांग। पटांगण (गांव के मुख्या के आंगन) मे अर्थ शास्त्रीय परंपरा के गीतों के साथ मनाई जाती है खड़ी होली। इस होली मे एक मुख्य होलियार होता है जो कि होली गाता है और बाकी होलियार उसके पीछे पीछे उसे दोहराते है। सभी लोग एक बड़े घेरे में बैठे रहते है और साथ साथ ढोल और नंगाड़े का संगीत दिया जाता है। इसी घेरे में कदमो को मिलाकर नृत्य भी करते है। यह होली एक अलग और स्थानीय शैली में मनाई जाती है। इसमें दिए जाने वाले संगीत की धुन हर गांव के अनुसार बदलती रहती है। यह कह सकते है की यह होली गांव की संस्कृति का प्रतीक है।यही कुछ विशेषताएं कुमाऊंनी होली को विशिष्ट बनाती हैं। छलड़ी पर घर–घर जाकर ढोल की थाप व मजीरे की खनक के बीच परिवार, गांव समाज की सुख समृद्ध, बेहतर स्वास्थ्य और अगले बरस फिर मिलने की कामना के साथ शुभाशीष दी जाती है। इस तरह से बसंत पंचमी से शुरू हुई होली, अपने इन्द्रधनुषी रंगों को बिखेरती, लोक गीतों व लोक नृत्य संग झूमती, मनों में उल्लास व उमंग भर, प्रेम व भाईचारे का संदेश देकर , अगले वर्ष तक के लिए विदा लेते हुए, आशीर्वाद से झोली भर जाती है…जी रया जागि रया कै गेछा
फागुन फूलौ कै गेछा.आप सभी को हुलसते मनों की, थिरकते पगों की बासंती होली बहुत–बहुत मुबारक.
लेखक, के व्यक्तिगत विचार हैं दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।
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