जानें मंगल द्वारा निर्मित मांगलिक योग : क्या है उपाय

मंगल ग्रह सम्पूर्ण परिचय एवं उपाय
हिंस्नो युवा पैत्तिक रक्त गौर
पिङ्गेच्छनो वह्वी निभो प्रचंड:
शुरोप्युदार: सतमास्त्रिकोणो,
मज्जाधिको भूतनय: सगर्व: ||
अर्थात :- मंगल ग्रह एक हिंसक, युवा, लाल, गौरवर्ण अधिक मज्जा व पित्त प्रधान प्रकृति का, रक्त नेत्रों वाला, तेज स्वभाव वाला उदार, तामसिक तथा गर्वीले स्वभाव के साथ त्रिकोण आकार का है।

सौरमंडल में मंगल गुरु व चंद्र के मध्य स्थित होता है। यह आकार में छोटा व चमकीले लाल रंग का है। मंगल के अन्य नामों में भौम, क्रूराक्ष, कुज, लोहितांग, क्षतिनंदन, अंगिरस स्कंद, भूमिपुत्र, भूसुत तथा अंगारक आदि उल्लेखनीय है।

 

मंगल को काल पुरुष का पराक्रम कहा जाता है। यह एक पुरुष ग्रह है। यह रक्त जैसे लाल रंग क्षत्रिय वर्ण का है। दक्षिण दिशा का स्वामी है। मंगल का ग्रीष्म ऋतु पर आधिपत्य है। कटु रस, धातु स्वर्ण मतांतर से तांबा व क्रीडा स्थल रसोईघर है। यह पाप ग्रह वस्त्र मोटे लाल, तथा लोक मृत्यु लोक है। मंगल के अधिष्ठाता देवता कार्तिकेय मतांतर से हनुमान जी भी हैं।

मंगल का सामान्य परिचय

मंगल के जन्म संबंधित अनेक ग्रंथों में अलग-अलग व्याख्या है। स्कंद पुराण में कहा गया है कि मंगल का जन्म धरती पर गिरे श्रीहरि भगवान विष्णु के पसीने की बूंद से हुआ है। वामन पुराण में कहा गया है कि मंगल का जन्म तब हुआ था जब भगवान शंकर ने अंधकासुर का वध किया था। महाभारत में कहा गया है कि भगवान कार्तिकेय के शरीर से मंगल की उत्पत्ति हुई है।

 

मंगल की माता पृथ्वी है मंगल को भारद्वाज ऋषि का वंशज माना जाता है। इसलिए इनका गोत्र भारद्वाज है तथा क्षत्रिय जाती है। इन्हें शौर्य का प्रतीक माना जाता है। मंगल प्रधान जातक का भाग्योदय 28 वें वर्ष में होता है। इसके सूर्य चंद्र गुरु मित्र हैं।

मंगल का वैज्ञानिक परिचय

सौरमंडल में मंगल की स्थिति आप इस प्रकार समझ सकते हैं कि पृथ्वी के एक और क्रमशः शुक्र बुध और सूर्य तथा दूसरी और चंद्र मंगल गुरु व शनि है। पृथ्वी से मंगल लगभग 6,26,00000 मील दूर है।

अन्य ग्रहों की तरह मंगल भी सूर्य की परिक्रमा करता है। यह सूर्य की परिक्रमा लगभग 628 दिन व 8 घंटे में पूरी करता है। प्रत्येक 15 वर्षों में मंगल पृथ्वी के सबसे निकट आता है तब इसकी पृथ्वी से दूरी 32500000 मील रह जाती है। मंगल जब भी सूर्य से 17 अंश के भीतर होता है तो अस्त कहलाता है। मंगल 15 से 16 मील प्रति सेकंड की गति से भ्रमण करता है। लेकिन इसकी गति में परिवर्तन होता रहता है।

जब यह सूर्य के निकट आता है। उस स्थिति में सबसे अधिक गति से चलता है। इस स्थिति में मंगल को अतिचारी होना कहते हैं। मंगल अपनी परिधि में लगभग 1.8 अंश पर झुका हुआ है तथा दैनिक धुरी गति 24 घंटे 35 मिनट व व्यास 4115 मील है। आज तक के वैज्ञानिक शोध से जितना भी ज्ञात हुआ है उन सब को भारतीय ज्योतिष में सैकड़ों वर्ष पहले ही बता दिया गया था। आज वैज्ञानिक भी स्वीकार करते हैं कि भारतीय ज्योतिष आरंभ से ही बहुत उन्नत रहा है।

मंगल का गोचर फल

जन्म राशि में- शत्रु भय
जन्म राशि से द्वितीय स्थान-आर्थिक हानि
तृतीय स्थान-आर्थिक लाभ
चतुर्थ स्थान-शत्रु पीड़ा (सुखहानी)
पंचम स्थान-आर्थिक हानि (शारीरिक कष्ट)
षष्ठ-स्थान धन लाभ
सप्तम स्थान-शोक
अष्टम स्थान-मृत्यु तुल्य कष्ट (शस्त्र अग्नि भय)
नवम स्थान-कार्य में रुकावट अथवा हानि
दशम स्थान-राज्य सम्मान (सुख लाभ)
एकादश स्थान-आर्थिक लाभ (भूमि वाहन लाभ)
द्वादश स्थान-रोग कष्ट धन हानि शल्य कष्ट।

मंगल ग्रह मुख्य कारक

ज्योतिष में मंगल को सेनापति का स्थान प्राप्त है। मंगल का मुख्य रत्न मूंगा है। यह मेष व वृश्चिक राशि का स्वामी है। मकर में उच्च तथा कर्क राशि में नीचत्व प्राप्त करता है। मंगल के सूर्य, चंद्र व गुरु ग्रह मित्र हैं। शनि व शुक्र सम ग्रह तथा बुद्ध शत्रु ग्रह है।

 

मंगल अपने घर से चौथे, सातवें तथा आठवें ग्रह को पूर्ण दृष्टि से देखता है। मंगल के मुख्य कारक रक्त, जाती, शत्रु, मांस-मज्जा,पित्ताशय, मूत्राशय, भाई (मतांतर से केवल छोटा भाई), सैन्य बल, शस्त्र, पराक्रम, बाहुबल अर्थात स्वयंबल, आबाकारी, भूमि, पुलिस, रक्षा विभाग, आपराधिक कानून, शरीर सौष्ठव, कुश्ती तथा पित्त मुख्य है।

अशुभ मंगल

जन्मकुंडली में अशुभ मंगल की स्थिति में जातक को बार बार फोड़े फुंसी होते हैं। जातक उदर रोग, कोढ, दंत विकार, रक्त विकार, अस्थि मज्जा के रोग तथा गुदा रोग, जिगर के रोग, होठों का फटना आदि से पीड़ित होता है। मंगल की कमजोर स्थिति में जातक डरपोक किस्म का होता है तथा अशुभ व पापी होने पर कुछ क्रूर अथवा अत्याचारी सबसे बिना बात के झड़ने वाला तथा बार-बार दुर्घटनाग्रस्त व शस्त्राघात पाने वाला होता है। मंगल यदि तीसरे भाव में स्थित होकर पापी अथवा पीड़ित हो तो व्यक्ति का अपने भाई से सदैव विरोध रहता है। अचल संपत्ति विवाद, सैन्य व पुलिस कार्यवाही, आगजनी, हिंसा, गुस्से में अपराध भी अशुभ मंगल के कारण होते हैं।

मंगल के नक्षत्र व प्रतिनिधि

मंगल के नक्षत्र मृगशिरा धनिष्ठा व चित्रा हैं। जिस जातक का जन्म नक्षत्र इनमें से कोई भी हो तो उसके जन्म के समय मंगल की महादशा चल रही होती है। मंगल की धातु तांबा है मतांतर से स्वर्ण है। इसका मुख्य रत्न रक्त मूंगा व उपरत्न चाइनीज मूंगा अथवा लाल हकीक है।

मंगल का बल

मंगल की शुभ राशि मेष, वृश्चिक, कर्क नीच राशि, मकर उच्च राशि तथा मेष राशि में ही 12 अंश तक मूल त्रिकोण का होता है। तीसरे व छठे स्थान में बलि व द्वितीय स्थान में निष्फल होता है। दशम भाव में दिग्बली व चंद्र के साथ चेष्टा बली होता है।

मंगलवार, स्वद्रेष्काण, स्वहोरा में स्व नवांश, वृश्चिक, मीन, मेष, मकर, कुंभ, राशि की रात्रि में वक्री दक्षिण दिशा व राशि में बलि होता है। दशम भाव में कर्क राशि में भी बलि माना जाता है। हस्त, चित्रा, स्वाति व विशाखा नक्षत्र में भी बलि होता है।

मंगल द्वारा निर्मित मांगलिक योग

यह एक ऐसा योग है जिसका नाम ही हमारे हिंदू धर्म में भय का पर्याय बन गया है। आज भी जिसके यहां संतान का जन्म होता है चाहे पुत्र हो अथवा पुत्री (लेकिन पुत्री होने पर विशेष रूप से) माता-पिता यह अवश्य जाने के इच्छुक होते हैं कि उनकी संतान कहीं मांगलिक तो नहीं है। ऐसा इस योग में क्या है संक्षिप्त में यह जानने का प्रयास करते हैं। किसी भी पत्रिका में यदि लग्न अथवा सूर्य अथवा चंद्र से (हमारे शोध के अनुसार शुक्र से भी) क्योंकि शुक्र भोग कारक ग्रह तथा वैवाहिक जीवन में इसका बहुत अधिक महत्व है। मंगल यदि 1,4,7, 8 व बारहवें भाव (दक्षिण भारतीय प्रदेशों में द्वितीय भाव में भी) में उपस्थित हो तो मांगलिक योग कहलाता है। इस योग के प्रभाव से वैवाहिक जीवन के साथ सामान्य जीवन में भी समस्या आने लगती है। इस योग के निवारण का माध्यम यह है कि जिसकी कुंडली में यह योग है उसका विवाह उससे हो जिसकी कुंडली में भी यह योग विद्यमान हो। दूसरा निवारण है कि आप पहले यह निश्चित करें कि यह योग है अथवा नहीं क्योंकि मात्र मंगल के उपरोक्त भाव में होने से ही मांगलिक योग निर्मित नहीं होता है अपितु पत्रिका में अन्य ग्रहों के प्रभाव से अथवा मंगल किस भाव में तथा किस राशि में विद्यमान है के आधार पर ही इस योग का निर्माण होता है। यहां हमारा पूर्ण विषय मांगलिक योग नहीं है इसलिए इस योग के निवारण की चर्चा नहीं कर पाएंगे क्योंकि यह बहुत ही विस्तृत विषय है। यह सत्य है कि यह योग अशुभ होता है परंतु इस योग का ध्यान रखा जाए अथवा सूक्ष्म रूप से पत्रिका का अध्ययन किया जाए और निश्चित होने पर कि यह योग है ही तो फिर निराकरण करने से अपना अशुभ फल नहीं देता है। इस योग के नाम पर मेरे पास आने वाली 20 पत्रिकाओं में से मात्र 5 ही पत्रिकाओं में यह योग होता है। कुछ ज्योतिषी पत्रिका में 1,4,7,8 वह बारहवें भाव में मंगल की उपस्थिति देखते ही जातक को मांगलिक घोषित कर देते हैं। जबकि यह पूर्णतया सत्य नहीं है तात्पर्य है कि मात्र इन घरों में मंगल की उपस्थिति ही मांगलिक योग नहीं होता है। ज्योतिष ग्रंथों में स्पष्ट कहा गया है कि यह घोषित करने से पहले अन्य योगों पर भी दृष्टिपात करना चाहिए तथा सभी का अध्ययन करके ही निष्कर्ष निकालना चाहिए।

लग्न अनुसार अशुभ मंगल

आज हम लग्न के अनुसार अशुभ मंगल की चर्चा करेंगे जिससे आप स्वयं ही अपनी जन्मकुंडली में मंगल की स्थिति देख सकें इसके साथ ही मंगल के साथ बैठे ग्रह को देखें तथा मंगल पर कौन सा ग्रह दृष्टि डाल रहा है यह भी देखें वह मित्र है अथवा शत्रु इसके बाद ही निष्कर्ष निकाले की मंगल कितना शुभ अथवा अशुभ है।

मेष लग्न : इस लग्न में मंगल द्वितीय, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम, एकादश एवं द्वादश भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है यहां पर मंगल दूसरे 11 वें तथा 12 वें भाव में आर्थिक रुप से कमजोर करता है।

वृष लग्न : इस लग्न में मंगल तृतीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम, द्वादश भाव में अधिक अशुभ फल देता है।

मिथुन लग्न : इस लग्न में मंगल प्रथम, चतुर्थ, षष्ठम, अष्टम, नवम भाव व द्वादश भाव में अशुभ फलदाई होता है।

कर्क लग्न : इस लग्न में मंगल तृतीय, षष्ठम, सप्तम, अष्टम तथा एकादश भाव में अधिक अशुभ रहता है।

सिंह लग्न : इस लग्न में मंगल लग्न, षष्ठम, अष्टम तथा एकादश भाव में अशुभ फल ही देता है।

कन्या लग्न : कन्या लग्न में मंगल धन भाव, चतुर्थ, षष्ठम व द्वादश भाव में पूर्णतया अशुभ फल देता है।

तुला लग्न : लग्न चतुर्थ, अष्टम, एकादश तथा द्वादश भाव में विशेष अशुभ फल देता है।

वृश्चिक लग्न : वृश्चिक लग्न में मंगल धन भाव, सुख भाव, रोग भाव, सप्तम, अष्टम, एकादश एवं द्वादश भाव में अशुभ फल देता है।

धनु लग्न : इस लग्न में भी मंगल लग्न भाव, तृतीय तथा एकादश भाव में अत्यधिक अशुभ फल देता है।

मकर लग्न : मकर लग्न में लग्न स्थित मंगल, धन भाव, सुख भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव, नवम भाव तथा व्यय भाव में अशुभ फलदायक होता है।

कुम्भ लग्न : इस लग्न में भी मंगल पूर्णत: धन, सुख, रोग, मारक, कर्म तथा व्यय भाव में अशुभ फल ही देता है।

मीन लग्न : इस लग्न में मंगल द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम, दशम, एकादश स्थान में सर्वदा अशुभ फल देता है।

मंगल के द्वारा होने वाले रोग

अभी तक हमने जाना कि मंगल एक अग्नि तत्व का कारक व उग्र स्वभाव का ग्रह है। स्वयं कि अशुभ स्थिति में होने पर किसी का विध्वंस करना उसका शौक अथवा कारक भी कह सकते हैं। क्योंकि यह एक पापी ग्रह भी है मंगल गोचर में जब भी त्रिषडाय भाव अर्थात 3, 6 व 11 भाव के अतिरिक्त अन्य भावो में अर्थात 1, 2, 4, 5, 7, 8, 9, 10 व 12 वे भाव में भ्रमण करता है तब मंगल के कारक रोग उत्पन्न होते हैं।

अग्नि ग्रह होने के कारण मंगल अग्नि से जुड़े रोग ही देता है। जैसे रक्त विकार, मस्तिष्क विकार, मूत्र विकार, निमोनिया, प्लेग, सूजन, गुदा रोग, शस्त्राघात, गर्भपात, रक्त स्त्राव, टाइफाइड, शल्यक्रिया तथा कोई भी अन्य गर्म प्रकृति के रोग। मंगल विशेषकर कर्क कन्या अथवा मीन राशि में अधिक रोग देता है।

प्रत्येक राशिस्थ मंगल कृत रोग
मेष राशि : मेष राशि में मंगल होने से मानसिक विकार, कुष्ठ रोग, सिर के रोग, गर्मी के कारण होने वाले फोड़े फुंसी, सांस के रोग, सिर में चोट लगने से हुआ रोग तथा गुदा रोग जिसमें मुख्यत: बवासीर, भगंदर, अपस्मार तथा मल विरोध के कारण कष्ट रहते हैं।

वृषभ राशि में : मंगल के इस राशि में होने पर वाणी विकार अर्थात स्वर में विकृति होती है। इस राशि में लग्नस्थ मंगल कंठ रोग, मुख के रोग के साथ सांस अवरोध तथा गुदा रोग भी देता है।

मिथुन राशि में : मंगल के इस राशि में होने पर शल्यक्रिया अवश्य होती है। मिथुन लग्न में मंगल अपने अशुभ प्रभाव के रूप में गर्दन से लेकर छाती तक रोक देता है। जिसमें दोनों बांहों के साथ फेफड़ों में भी कष्ट होता है। यदि सूर्य भी पापी अथवा पीड़ित हो तो अस्थि भंग के कारण शल्यक्रिया होती है। रोग बिगड़ने पर रक्त विकार व खांसी जुखाम अथवा दमा हो सकता है।

कर्क राशि मे : इस राशि में मंगल अधिक मैथुन से कष्ट अथवा दौर्बल्य उत्पन्न करता है। नेत्रों में कष्ट व दांतों में पानी लगना अथवा दांत उखड़वाना पड़ सकता है। कर्क लग्नस्थ मंगल डिहाइड्रेशन, खांसी, दमा, डिप्थीरिया, प्लूरसी, फेफड़ों में पानी जाना अथवा सुखना तथा संक्रमण के रोग देता है। चंद्र की युति होने पर ह्रदय रोग अथवा हृदयाघात की पूर्ण संभावना होती है।

सिंह राशि में : इस राशि में मंगल पेट के रोग विशेषकर अंदर के कष्ट से शल्यक्रिया, आंतों में सूजन, लीवर में संक्रमण व गर्भपात आदि होता है सिंह लग्नस्थ मंगल का जातक अधिक कामवासना से पीड़ित होकर स्वयं ही रोग को आमंत्रण देता है लेकिन इस स्थिति में जातक शीघ्र ही रोग मुक्त भी हो जाता है।

कन्या राशि में : इस राशि में मंगल के होने पर अग्नि जैसे रोग होते हैं शरीर में पानी की कमी होना अथवा दांतों में मल का जमना व कब्ज आदि मुख्य होते हैं।

तुला राशि में : इस राशि का मंगल व्यक्ति को उदासीन करता है। कुछ समय के लिए वासना से पीड़ित अवश्य करता है परंतु कुछ ही समय में जातक एकदम शांत हो जाता है। मूत्र संस्थान के रोग भी देता है। शुक्र भी पीड़ित अथवा पापी हो तो मूत्र के साथ वीर्य जाता है। तुला लग्नस्थ मंगल ऐसे रोग देता है जिसमें जातक अत्यधिक कामवासना से पीड़ित होकर स्वयं ही यौन रोगों को आमंत्रण देता है।

वृश्चिक राशि में : इस राशि में मंगल गुदा रोग, मल मूत्र निष्कासन में कष्ट, भगंदर तथा अग्नि से कष्ट के रोग देता है इस लग्न में भी मंगल रति रोग व गुदा रोग अधिक देता है

धनु राशि में : मंगल इस राशि में हो तो जातक को अनेक प्रकार के रोगों का सामना करना पड़ता है। जिसमें अचानक चोट, फेफड़ों के रोग, रक्त-मज्जा के रोग अस्थि ज्वर मुख्य होते हैं। इस लग्न में स्थित मंगल के कारण अचानक दुर्घटना, अग्निकांड अथवा विस्फोट व खेलकूद में चोट आदि लगती है।

मकर राशि मे : इस राशि का मंगल त्वचा रोग, संधि कष्ट, शरीर में अधिक गर्मी, वात विकार, कफ़ श्वास तथा शल्य क्रिया के बाद के कष्ट देता है। इस लग्न में अग्निकांड , मधुमेह अथवा पुराना घाव का उभरना जैसे रोग होते हैं।
— कुंभ राशि में : कुंभ का मंगल त्वचा विकार के साथ पक्षाघात भी दे सकता है। इस लग्न में मंगल रक्त विकार, बाएं कान में कष्ट देता है।

मीन राशि में : इस राशि में मंगल रक्त विकार अधिक देता है। जैसे उच्च रक्तचाप, धमनी में अवरोध, ह्रदय कष्ट, हीमोग्लोबिन की कमी ल, किसी भी व्यसन से हानि, ऊंचे स्थान से गिरना आदि। यदि द्वादश भाव भी दूषित हो तो संसर्ग से कष्ट हो सकता है। इस लग्न में मंगल किसी भी प्रकार के नशे के आदी होने से रोग तथा उसके अत्यधिक सेवन के कारण होने वाले रोग से समस्या देता है।

मंगल के छठे भाव मे स्थित होने पर राशि अनुसार होने वाले रोग

मेष राशि : इस भाव में मंगल यदि मेष राशि में हो तो जातक शिरो रोग से कष्ट पाता है। ऐसे जातकों को वाहन संचालन में सावधानी रखनी चाहिए। कोमा में जाने का योग भी बनता है। इसके अतिरिक्त दिमाग की सूजन अथवा बुखार तथा नेत्र पीड़ा भी हो सकती है।

वृषभ राशि : मंगल इस घर में इस राशि में श्वसन तंत्र को प्रभावित करता है। श्वास नलिका में सूजन अथवा जलन तथा मूत्र संस्थान में संक्रमण हो सकता है।

मिथुन राशि : इस योग में मंगल फेफड़ों को अत्यधिक प्रभावित करता है। मवाद पढ़ना जैसा कष्ट होता है। साथ ही रक्त विकार, पेट बढ़ना, खांसी व कफ जमना, सांस लेने के समय खर खर की आवाज आना तथा दोनों हाथों में सूजन भी हो सकती है।

कर्क राशि : यह योग स्त्री जातक के लिए अधिक कष्टकारी होता है। जिसमें रक्त स्त्राव, श्वेत प्रदर अथवा अन्य स्त्री रोग से पीड़ा रहती है। साथ ही रक्त विकार, वात पित्त कष्ट अपच आदी कष्ट होते हैं।

सिंह राशि : यहां पर सिंह राशि का मंगल उच्च रक्तचाप, छाती में जलन, पेट के आंतरिक हिस्से में संक्रमण तथा उदासीनता जैसे रोग देता है।

कन्या राशि : कन्या राशि का मंगल यहां आंतों के रोग देता है। जिसमें मुख्यतः आंतों में सूजन अथवा संक्रमण होते हैं। इसके साथ रक्त अतिसार, शरीर में पानी की कमी तथा फूड प्वाइजनिंग जैसे कष्ट भी हो सकते हैं।

तुला राशि : इस भाव में मंगल यदि तुला राशि में हो तो जातक को मूत्र संस्थान के रोग तथा वीर्य विकार आदि रोग होते हैं।

वृश्चिक राशि : इसी योग में स्त्री वर्ग के लिए अधिक कष्टकारी स्थिति होती है। जिसमें रक्तस्त्राव, प्रसूति संक्रमण तथा मासिक चक्र में अनियमितता के कारण कष्ट रहता है। अन्य रोग में गुदा रोग, रक्त विकार व गति में कष्ट मूत्र स्थान में संक्रमण आदि रोग पीड़ा दे सकते हैं।

धनु राशि : इस राशि में भी मंगल पीलिया अथवा यकृत रोग मलोत्सर्ग में कष्ट, गुदा रोग, फेफड़ों का संक्रमण, शीघ्रपतन, कामभावना का पतन तथा स्त्री वर्ग से दूर रहना जैसे रोग होते हैं।

मकर राशि : इस राशि का मंगल जातक को त्वचा रोग, जोड़ों के दर्द, अमाशय में विकार, गैस की समस्या तथा पिंडली अथवा घुटने में चोट का भय अधिक देता है। हमारे शोध के आधार पर यदि शनि की इस भाव पर दृष्टि हो तो जातक को दाएं घुटने पर चोट से विकलांगता अवश्य आती है इसका समय 8 वर्ष से 36 वर्ष के मध्य होता है। इस योग में जातक अपनी बीमारी से शीघ्र मुक्त नहीं होता है।

कुम्भ राशि : इस योग में जातक को बुखार का बिगड़ना, मौसमी बुखार से पीड़ा, सूर्य के पीड़ित होने पर लकवा, अस्थि भंग अथवा हृदयाघात हो सकता है। इस योग में भी रोग ठीक होने में अधिक समय लेता है।

मीन राशि : छठे घर में मीन राशि का मंगल रक्त विकार अथवा रक्त की कमी, छाती का संक्रमण अथवा अन्य संक्रमण तथा जलीय रोग अधिक देता है।

मंगल का प्रत्येक भाव पर दृष्टि फल
प्रत्येक ग्रह अपने घर से सातवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता है। इसके साथ ही साथ कुछ ग्रह जैसे गुरु, मंगल, शनि व मतांतर से राहु व केतु की कुछ अन्य दृष्टि भी होती है। इसके अतिरिक्त मंगल की अन्य दृष्टि भी होती है। जिसे एक पाद, द्विपाद कहते हैं परंतु फल पूर्ण दृष्टि का होता है इसलिए हम यहां मंगल की पूर्ण दृष्टि के फल की चर्चा करेंगे मंगल अपनी सातवीं दृष्टि के अतिरिक्त चतुर्थ, अष्टम भाव को भी पूर्ण दृष्टि से देखता है।

प्रथम भाव : अर्थात लग्न पर यदि मंगल की दृष्टि हो तो ऐसा जातक उग्र प्रवृत्ति का, प्रथम जीवन साथी का 22 वर्ष अथवा 28 वर्ष की आयु में भी वियोग तथा भूमि के माध्यम से आर्थिक लाभ प्राप्त करने वाला होता है।
— द्वितीय भाव : पर मंगल की यदि पूर्ण दृष्टि हो तो जातक गुदा रोगी, परिवार से अलग रहने वाला होता है।

स्वयं के श्रम से धन अवश्य आता है परंतु उसकी मात्रा कम होती है। ऐसा व्यक्ति परिश्रमी भी बहुत होता है लेकिन श्रम का पूर्ण फल ना मिलने से उसका चित्त सदैव उच्चाट व खिन्न रहता है।

तृतीय भाव : इस घर पर मंगल की दृष्टि होने से व्यक्ति भाई के प्रेम के सुख से हीन होता है। व्यक्ति पराक्रमी तथा भाग्यवान होता है एक बहन विधवा अवश्य होती है।

चतुर्थ भाव : इस भाव पर मंगल की दृष्टि होने से भी जातक माता पिता के सुख से विहीन, श्रम के कार्यों से दूर रहने वाला, 28 वर्ष आयु तक दुखी फिर सुख प्राप्त करने वाला, चतुर्थ भाव तथा भावेश की स्थिति भी शुभ अथवा अनुकूल हो तो वाहन सुख प्राप्त करता है। परंतु शारीरिक कष्ट कुछ ना कुछ बना रहता है।

पंचम भाव : इस भाव को मंगल के देखने से व्यक्ति की पहली संतान की मृत्यु अथवा गर्भपात हो सकता है। जातक अनेक भाषा का ज्ञानी, विद्वान परंतु व्यभिचारी तथा संतान से कष्ट पाने वाला तथा उपदंश रोग होता है।

षष्ठ भाव : इस घर को मंगल के देखने से व्यक्ति मातृ पक्ष के लिए कष्टकारी होता है अर्थात मामा मौसी को कष्ट होता है। शत्रु को भय देने वाला, रक्त विकार से पीड़ित तथा यश व कीर्ति प्राप्त करने वाला होता है।

सप्तम भाव : इस भाव को यदि मंगल पूर्ण दृष्टि से देखें तो व्यक्ति कामी स्वभाव वाला, जीवनसाथी के अतिरिक्त दूसरे से संबंध बनाने वाला, मद्यपान प्रेमी तथा 21 अथवा 28 वर्ष आयु में प्रथम जीवन साथी का वियोग सहने वाला होता है।

अष्टम भाव : इस भाव पर मंगल के देखने से जातक की अग्नि अथवा विस्फोट से मृत्यु का भय होता है। ऐसा व्यक्ति अपने पिता के द्वारा संचित धन व कुटुंब का नाश करता है। सदैव ऋण ग्रस्त रहने वाला परिश्रमी परंतु दुखी व भाग्य हीन होता है।

नवम भाव : इस भाव पर मंगल की दृष्टि के शुभ फल अधिक मिलते हैं। जातक धनवान, बुद्धिमान व पराक्रमी किंतु नास्तिक भी हो सकता है।

दशम भाव : इस घर पर मंगल की दृष्टि से व्यक्ति सरकारी सेवाओं में नौकरी करने वाला तथा सुखी जीवन व्यतीत करने वाला होता है। भाग्यवान भी होता है परंतु माता पिता के लिए कष्टकारी होता है।

एकादश भाव : इस घर पर भी मंगल की दृष्टि से ऐसा व्यक्ति धनवान अवश्य होता है परंतु उसे संतान से कलेश व कष्ट मिलते हैं। परिवार कुटुंब के दुख में स्वयं भी बहुत दुखी होता है।

द्वादश भाव : इस भाव पर मंगल की पूर्ण दृष्टि से व्यक्ति गलत मार्ग पर चलने वाला, मातृ पक्ष के लिए कष्टकारी, उग्र क्रोधी स्वभाव का शत्रु वर्ग का नाश करने वाला तथा गुदा रोग से पीड़ित व शल्यक्रिया करवाने वाला होता है।

मंगल की महादशा का फल

जन्मकुंडली में मंगल यदि पापी कारक अथवा पीड़ित हो तो इसकी दशा में अग्रलिखित फल प्राप्त होते हैं। शुभ ग्रह लग्नेश या कारक ग्रह की युति अथवा दृष्टि होने पर निश्चित ही मंगल के अशुभ फलों में कमी आती है। यह अधिकतर लग्न, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम तथा द्वादश भाव में विशेष अशुभ फल देता है। परंतु इसका पूर्ण निर्णय मंगल की स्थिति पर निर्भर करता है जैसे मंगल यदि जन्मकुंडली में उच्च क्षेत्री, स्वक्षेत्री, कारक अथवा मूल त्रिकोण में हो तो यश लाभ, साहस के माध्यम से सफलता व आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं। अथवा पूर्ण रूप से पापी अथवा पीड़ित, अकारक हो तो इस की महादशा में तथा इसके साथ इसकी ही अंतर्दशा में निम्न अनुसार फल प्राप्त होते हैं।

लग्नस्थ मंगल : अपने कारक रोगों को अवश्य देता है। मेष का मंगल धन लाभ, यश व अग्नि कष्ट देता है।
द्वितीय भाव में : मुख्य रोग, नेत्र कष्ट, वाणी में तीव्रता में कटुता लाता है।
वृषभ राशि में : शारीरिक कष्ट किसी अन्य के माध्यम से धन लाभ जनहित कार्य करता है। तीसरे घर में राज्य लाभ, भाई से सहयोग, संतान प्राप्ति आदि फल प्राप्त होते हैं / — मिथुन राशि में खर्च में वृद्धि, प्रवास, पित्त व वायु विकार व कान में कष्ट। चतुर्थ भाव में पद से मुक्ति, बेकार भटकना, राजदंड, भाइयों से विरोध व अग्नि के साथ दुर्घटना का भय होता है।

कर्क राशि में : धन लाभ, क्लेश, परिवार से दूर, पंचम भाव में संतान हानि, मतिभ्रम, नेत्र व उदर कष्ट।
सिंह राशि में : राज्य से लाभ, अग्नि पीड़ा, व शस्त्राघात भय एवं व्यय अधिक होता है। रोव भकाव में शत्रु से हानि, अधिकारच्युत होना व स्त्री वर्ग से विरोध व मतभेद।

कन्या राशि में : भूमि लाभ, धन लाभ, पुत्र प्राप्ति और यश प्राप्ति, सप्तम भाव मे जीवन साथी वियोग अथवा रोग, गुप्त व मूत्र संस्थान के रोग से कष्ट परन्तु चंद्र की युति से अशुभ फल में कमी आती है।

तुला राशि में : जीवनसाथी हानि, आर्थिक हानि तथा मानसिक क्लेश होते हैं। अष्टम भाव में अशुभ फल अधिक तीव्रता से प्राप्त होते हैं। अग्नि, विस्फोट, रक्तपात व दुर्घटना का भय अधिक होता है।

वृश्चिक राशि में : दुर्घटना, अग्नि व शस्त्राघात का भय अधिक होता है। नवम भाव में धर्म-कर्म में विघ्न बाधा तथा स्थानांतरण के बाद अवरोध अधिक होते हैं।

धनु राशि में : राज्य लाभ, आर्थिक लाभ व धर्म में रुचि राज्य लाभ आर्थिक लाभ व धर्म में रुचि होती है। दशम भाव में मान सम्मान में कमी, व्यापार अथवा कर्म क्षेत्र में हानि, मातृ सुख में कमी के साथ धन हानि संतान कष्ट आदि आते हैं।

मकर राशि : के मंगल से अधिकारों में वृद्धि व प्राप्ति, आभूषण रत्न आदि का लाभ व कार्य सिद्धि आदि फल प्राप्त होते हैं। एकादश भाव में आर्थिक लाभ, राज्य लाभ, शत्रुओं पर विजय मिलती है।

कुंभ राशि में : अधिक व्यय, शुभ मानसिकता का अभाव, व मानसिक चिंता. बारहवें भाव में आर्थिक हानि या सुख में कमी, शल्य क्रिया योग, राजदंड व भूमि भवन की हानि,
मीन राशि में : मंगल ऋण वृद्धि, त्वचा विकार, शारीरिक पीड़ा देता है।
मंगल की महादशा में अन्य ग्रहान्तर्दशा का फल
मंगल की महादशा के उपरोक्त फल पूर्ण महादशा में कभी भी घटित हो सकते हैं। परंतु अग्रलिखित फल अन्य ग्रह की अंतर्दशा में प्राप्त होते हैं। इन फलों का निर्धारण भी आप मंगल के साथ जिस ग्रह की अंतर्दशा हो उसके बल व शुभाशुभ देखकर ही करें।

मंगल में मंगल की अंतर्दशा
इस काल में मंगल यदि लग्न से युती अथवा 1, 4, 5, 7, 9 अथवा दसवें भाव में हो तो जातक को सुख वृद्धि संतान लाभ व आर्थिक लाभ होता है। उच्च अथवा स्वक्षेत्री हो तो भूमि भवन लाभ होता है। 6, 8 अथवा 12 वें भाव में होने पर मूत्र संस्थान के रोग, शस्त्राघात, त्वचा रोग व चोरी का भय होता है। यदि इसमें कुछ पाप प्रभाव अर्थात पापी ग्रह की दृष्टि अथवा युति हो तो यह फल और अधिक भीषण रूप लेते हैं। मंगल के अकारक होने पर पित्त रोग अथवा इसके कारक रोग, भाइयों से विरोध, राजदंड, चोरी, अग्निकांड, विस्फोट आदि फल प्राप्त होते हैं। यहां पर हमारा मानना है कि मंगल यदि कारक हो तो व्यक्ति के शत्रु अधिक व बलशाली होते हैं। लेकिन विजय फिर भी जातक की ही होती है। मंगल के मारक भाव का स्वामी होने पर अधिक कष्ट मिलते हैं।

मंगल में राहु की अंतर्दशा
ऐसी दशा में राहु यदि उच्च का मूल त्रिकोण अथवा किसी शुभ ग्रह से युत या दृष्ट हो अथवा 1, 4, 5, 7, 9 अथवा दसवें भाव में हो तो राज्य से लाभ, अचानक भूमि लाभ, प्रवास, परिवार सुख आदि फल प्राप्त होते हैं। इसके अतिरिक्त राहु यदि लग्न अथवा मंगल से 6, 8 अथवा 12 वें भाव में हो तो जातक को भूमि हानि, सर्प से भय, राजदंड, त्रिरोग (वात, पित्त, कफ) से कष्ट होता है। किसी अन्य पापी ग्रह की दृष्टि होने पर जेल यात्रा तक हो सकती है। यहां पर हमारा शोध है कि राहु यहां भी अचानक ही लाभ हानि करवाता है। यहां शुभ फल कम प्राप्त होते हैं। यदि राहु पाप ग्रस्त व मंगल अकारक है तो व्यक्ति को शस्त्राघात, अग्निकांड, चोरी शिरोरोग अथवा घर में किसी वृद्ध या गुरु समान व्यक्ति की मृत्यु होती है। साथ ही राहू के ऊपर मारक ग्रह की दृष्टि अथवा युति हो तो फिर मृत्यु तुल्य कष्ट तो अवश्य ही प्राप्त होते हैं।

मंगल में गुरु की अंतर्दशा
जन्मकुंडली में इन दोनों ग्रहों के अच्छी स्थिति में होने पर इस दशा के शुभ फल अधिक प्राप्त होते हैं। हमारा शोध कहता है कि यदि यहां एक ग्रह भी शुभ व बली है तो भी दशा फल अच्छा प्राप्त होगा। गुरु के कुंडली में इन भावों में होने से तथा अधिक शुभ फल प्राप्त करने के लिए गुरु का कुछ उपाय आवश्यक है। हमने देखा है कि गुरु इन स्थानों में नैसर्गिक रूप से कारकत्व तथा केंद्राधिपति दोष से पीड़ित होता है। इसीलिए जितना फल वह देना चाहते हैं उतना फ़ल दे नहीं पाते हैं। यहां कुंडली में यदि गुरु उच्च, मूल्य त्रिकोणी अथवा लगन या मंगल से 1, 4, 5, 7, 9, 10 या 11वें भाव में हो तो व्यक्ति को यश वृद्धि, धन लाभ, कर्म क्षेत्र अथवा व्यापार में लाभ, आरोग्य लाभ, राज्य लाभ, संपत्ति में वृद्धि, तथा परिवार में मांगलिक कार्य होते हैं। गुरु यदि मंगल अथवा कुंडली में 6, 8 अथवा 12 वें भाव में हो अथवा नीच, शत्रुक्षेत्री, पाप युक्त अथवा दृष्ट हो तो आर्थिक हानि, चोरी से हानि, कफ रोग, बड़े भाई से वियोग, कान में कष्ट आदि फल प्राप्त होते हैं।

मंगल में शनि की अंतर्दशा

यह दशा जातक को मिश्रित फल देने वाली होती है। परन्तु मतान्तर से इस दशा में जातक को अत्यधिक कष्ट प्राप्त होते है। यदि शनि उच्च, मूल त्रिकोणी, अथवा स्वक्षेत्री हो अथवा 1, 4, 5, 7, 9 या दसवें भाव में हो तो सत्ता सुख, यश वृद्धि आदि फल प्राप्त होते हैं। यदि शनि मंगल अथवा लग्न से 6, 8 अथवा 12वें भाव मे अथवा क्षत्रु क्षेत्री, नीच या पाप युक्त, दृष्ट हो तो धन संपत्ति का नाश, संतान कष्ट, शारीरिक कष्ट, जेल यात्रा व परिवार की चिंता के फल प्राप्त होते हैं। शनि मारक भाव का स्वामी हो अथवा मारकेश के साथ युति दृष्टि हो तो मृत्यु तुल्य कष्ट तथा मारकेश काल चल रहा हो तो मृत्यु भी हो सकती है। मतांतर से इस दशा में व्यक्ति को अनेक प्रकार के कष्ट, चोरी, आर्थिक हानि अग्नि तथा वायु के माध्यम से हानि होती है। व्यक्ति अपनों से बुजुर्गों पर आने वाली विपत्ति से स्वयं कष्ट में रहता है। शत्रु धन-संपत्ति छीन लेते हैं। शनि के मारकेश अथवा मारकेश से युति या दृष्ट होने से मृत्यु तुल्य कष्ट होते हैं।

मंगल में बुध की अंतर्दशा

इस दशा में बुध यदि लग्न अथवा मंगल से 1, 4, 5, 7, 9 अथवा दसवें भाव में या उच्च स्वक्षेत्री अथवा मूल त्रिकोण में हो तो व्यक्ति को कन्या रत्न की प्राप्ति होती है। धर्म कार्य में रूचि, अच्छा भोजन प्राप्त होता है। वाणी मधुर व राज्य व वाणिज्य से लाभ होता है। बुध यदि दोनों से 6,8 अथवा बारहवें भाव में हो अथवा शत्रु क्षेत्री, नीच, पापी युक्त या दृष्ट हो तो हृदयाघात, धन्य व मान सम्मान की हानि, जेल अथवा राजदण्ड, किसी क्षुद्र शत्रु से कष्ट अथवा व्यापार हानि, जीवन साथी अथवा संतान कष्ट होता है। बुध यदि मारकेश अथवा मारकेश के साथ हो तो अत्यधिक कष्ट होता है।

मंगल में केतु की अंतर्दशा
इस दशा में केतु यदि मंगल अथवा लग्न से 1, 4, 5, 7, 9, 10 अथवा 11 वे भाव में किसी शुभ ग्रह से युति करें या दृष्ट हो तो आर्थिक लाभ, भूमि भवन लाभ, समाज अथवा कर्म क्षेत्र में कोई पद अथवा सम्मान मिलना, यश वृद्धि आदि फल प्राप्त होते हैं। और यदि 6, 8 अथवा 12वें भाव में हो तो मन में भय शारीरिक कष्ट व रोग आर्थिक हानि होती है लोग अविश्वास करते हैं। मंगल अथवा केतु किसी पापी ग्रह के प्रभाव में हो तो शस्त्राघात, दुर्घटना, विदेश में हानि अथवा दुर्घटना की संभावना रहती है।

मंगल में शुक्र की अंतर्दशा
इस दिशा में शुभ फल प्राप्ति का योग अधिक होता है। शुक्र यदि उच्च, मूलत्रिकोणी अथवा स्वक्षेत्री हो अथवा 3, 6, 8 व बारहवें भाव के अतिरिक्त अन्य किसी भी भाव में होने पर सुख प्राप्ति, राज्य में सम्मान, भौतिक वस्तुओं का लाभ, तीर्थ यात्रा, संतान प्राप्ति, ऐश्वर्य अथवा जातक के माध्यम से कोई जन कल्याण व परोपकार के कार्य होते हैं। यदि शुक्र लग्नेश सुखेश अथवा कर्मेश से युति करे तो शुभ फल में और अधिक वृद्धि हो जाती है। लेकिन शुक्र यदि 6, 8 अथवा बारहवें भाव में हो अथवा नीच शत्रु क्षेत्री अथवा पाप दृष्ट हो तो किसी क्षेत्र में पराजय, परिवार से दूर रहना पड़े, चोरों से हानि, संतान की चिंता, कर्म क्षेत्र में हानि अथवा अपमान बाये नेत्र में कष्ट, शैया सुख में कमी, शीघ्रपतन जैसी समस्याएं होती हैं।

मंगलमय सूर्य की अंतर्दशा
सूर्य यदि उच्च, स्वक्षेत्री, मूलत्रिकोण हो अथवा अशुभ ग्रह से द्रष्ट या युत हो अथवा मंगल या लग्न से 1, 4, 5, 7, 9 अथवा दसवें भाव में हो तो राज्य सम्मान, कर्म क्षेत्र में वृद्धि व सम्मान, धनसुख, वाहन में वृद्धि अथवा अपने शौर्य से जातक धन व सम्मान प्राप्त करता है। परंतु सूर्य यदि किसी से भी 6, 8 अथवा बारह भाव में हो तो कर्म क्षेत्र में अपमान, संताप, शारीरिक व मानसिक कष्ट, कार्यों में अवरोध, नौकर वर्ग से कष्ट आदि फल प्राप्त होते हैं। सूर्य अथवा मंगल के पाप ग्रह के प्रभाव में होने पर अशुभ फल में और वृद्धि हो जाती है।

मंगल में चंद्र की अंतर्दशा

चंद्र यदि उच्च, शुभ ग्रह के प्रभाव में स्वक्षेत्रीय अथवा मूलत्रिकोणी हो अथवा लग्न या मंगल से 2, 4, 5, 9 अथवा दसवें भाव में हो तो अनेक माध्यम से धन प्राप्ति, राज्य में लाभ व सम्मान, माता-पिता से सुख व लाभ, विवाह, किसी विशेष कार्य सिद्धि से मन में हर्ष, संपत्ति लाभ, संतान सुख, शैया सुख में वृद्धि तथा शत्रुओं पर विजय जैसे फल प्राप्त होते हैं, इसके साथ ही जातक को किसी गुरु समान व्यक्ति का विछोह भी सहना होता है। कोई फोड़ा अथवा पित्त पीड़ा हो सकती है। चंद्र यदि 6, 8, अथवा 12 वें भाव में हो अथवा शत्रु ग्रह के प्रभाव में अथवा नीच, शत्रु क्षेत्री, पाप ग्रह से पीड़ित हो तो संपत्ति में हानि, पशुधन में कमी, शत्रु से पीड़ा अथवा जीवनसाथी व संतान पीड़ा होती है। ऐसे जातक यदि संपत्ति जोड़ भी लें तो वह सम्पति कुछ समय बाद गंवा भी देते हैं।

मंगल के अशुभ योगों के उपाय
शिव पुत्र भगवान कार्तिकेय क़ी पूजा आराधना मंगल जनित कष्ट से मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय हैं अन्य उपाय –1.मंगल कृत अरिष्ट शांति के लिए किसी भी शुक्ल पक्ष के मंगलवार से शुरू करके लाल वस्त्र पहनकर श्री हनुमान जी की मूर्ती से सामने कुशाशन पर बैठा कर गेरू अथवा लाल चंदन का टीका लगाकर एवं घी की ज्योति जगाकर श्री हनुमानाष्टक अथवा हनुमान चालीसा का प्रतिदिन काम से कम 21 संख्या में पाठ करे।ऐसा नियमित 41 दिन तक करने पर कठिन से कठिन कार्य की सिद्धि होती है।श्री हनुमानाष्टक पाठ के प्रारंभ में श्री हनुमत-स्तवन के सात मंत्रो का भी पाठ करने से विशेष लाभ होता है।पाठ के बाद किशमिश या लड्डू का भोग लगाना शुभ रहेगा।

2. हर मंगलवार को स्नान आदि से निवृत होकर लाल वस्त्र एवं लाल चंदन का तिलक धारण कर कुशाशन पर बैठ कर 41 दिन नियमित रूप से 108 बार हनुमान चालीसा का पाठ एवं लड्डू का भोग लगाने से भौमकृत अरिष्ट की शांति होती है।

3. जन्म कुंडली में मंगल योग कारक होकर भी शुभ फल ना दे रहा हो तो हर मंगल वार कपिला गाय को मीठी रोटियां खिलाकर नमस्कार करना चाहिए गौ को हरा चारा जल सेवा एवं लाल वस्त्र पहना कर अलंकृत करने से मंगल के अशुभ फल की शांति होती है।

4. अपने इष्ट देव को घर में ही 27 मंगलवार सिंदूर का तिलक लगाकर खुद भी प्रसाद स्वरूप तिलक लगाना शुभदायक रहेगा।

5. सोमवार की रात्रि को ताँबे के बर्तन में पानी सिराहने रख कर मंगलवार की प्रातः घर में लगाये हुए गुलाब के पौधों को वही जल मंगल का बीज मंत्र पढ़ते हुए डाले।

6. किसी भी विशेष यात्रा पर जाने से पहले शहद का सेवन शुभ रहेगा।

7. यदि कुंडली में मंगल नीच राशिगत हो या अस्त हो तो शरीर पर सोने या तांबे का गहना या अन्य कोई वस्तु धारण नहीं करना चाहिए।इस स्तिथि में लाल रंग के वस्रों एवं लाल चंदन का भी परहेज करना चाहिए।

8. मंगल अशुभ होने की स्तिथि में मंगल सम्बंधित वस्तुओ (ताम्र बर्तन, इलेक्ट्रॉनिक वस्तु, लाल वस्त्र, गुड़ आदि) के उपहार विशेष कर मंगलवार या मंगल के नक्षत्रो में ग्रहण ना करे अपतु इनका दान इन दिनों विशेष लाभदाय रहेगा।

9. गेंहू तथा मसूर की दाल के सात-सात दाने लाल पत्थर पर सिंदूर का तिलक लगाकर इनको लाल वस्त्र में लपेटकर मंगलवार को मंगल का बीज मंत्र पढ़ते हुए बहते जल में प्रवाहित करें।

10. 27 मंगलवार किसी अंध विद्यालय में या किसी अंगहीन व्यक्ति को मीठा भोजन कराना शुभ होगा।

11. मंगल की अशुभता में माँस-मछली-शराब आदि तामसिक भोजन का परहेज विशेष जरूरी है।

12. बिना नमक का एक समय भोजन या फलाहारी रहते हुए मंगलवार का व्रत रखना कल्याण प्रद रहेगा।

13. सोमवार की रात्रि सरहाने ताम्र पात्र में जल रख कर प्रातः बरगद की जड़ में मंगल के बीज मंत्र या ब्राह्मण को वैदिक मन्त्र से जल चढ़ाना शुभ रहेगा।

14. कर्ज से छुटकारे एवं संतान सुख के लिए ज्योतिषी से परामर्श कर सवा दस रत्ती का मूंगा धारण करना, भौम गायत्री मंत्र का नियमानुसार जप ,तथा मंगल स्त्रोत्र का पाठ करना कल्याणकारी रहता है।

15. ऋण, रोग एवं शत्रु भय से मुक्ति के लिए एवं आयोग्य,धन – संपदा – पुत्र प्राप्ति के लिए मंगल यंत्र धारण तथा मंगल की औषधियों से नियमित स्नान इसके अतिरिक्त मंगल के वैदिक मंत्रों का निर्दिष्ट अनुसार ब्राह्मणों द्वारा जप और दशांश हवन करना शीघ्र कल्याणकारी रहेगा।

16. कुंडली में मांगलिक आदि दोष के कारण मंगल अशुभ फल दे रहा हो तो जातक/जातिका को श्री सुंदरकांड का नियमित 108 दिन तक हनुमान जी की चोला -जनेऊ एवं भोग लगाकर पाठ करने से वैवाहिक एवं पारिवारिक सुखों में वृद्धि करता है।इसके अतिरिक्त भौम शांति के लिए मंगल चंडिका स्त्रोत्र का पाठ भी विशेष लाभप्रद माना गया है।

17. अनंतमूल की जड़ मंगलवार को अनुराधा नक्षत्र में लाल धागे से दाएं बाजू में बाँधने से भौम कृत अरिष्ट की शांति होती है।

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